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फिर भी ज़िंदगी हसीन हैं...

आत्मिक सुख और दिखावा - चुनाव आपका

आत्मिक सुख और दिखावा - चुनाव आपका
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Mar 4, 2021
आत्मिक सुख और दिखावा - चुनाव आपका

अभी कुछ दिन पूर्व मेरे साथ एक बड़ा मज़ेदार हादसा हुआ, जी हाँ मज़ेदार हादसा। मुझे मल्टी लेवल मार्केटिंग करने वाले एक समूह द्वारा सॉफ़्ट स्किल ट्रेनिंग के लिए बुलवाया गया। शहर की भीड़ से बचने और निर्धारित समय पर पहुँचने के लिए मैंने उस दिन अपनी होंडा कार की जगह मारुती कार से कार्यक्रम स्थल पर जाने का निर्णय लिया। कार्यक्रम स्थल में घुसते ही मुझे बड़ा सुखद अनुभव हुआ, सभी गाड़ियाँ बड़े क़रीने से पार्क की गई थी, लोग गेट पर भीड़ लगाने के स्थान पर लाइन में लगे हुए थे। सब कुछ बड़ा व्यवस्थित लग रहा था।

कैम्पस के मुख्य द्वार से ही दो लोग मुझे गाइड करते हुए, हॉल के मुख्य द्वार के सामने मेरी कार के लिए आरक्षित पार्किंग स्थान तक लेकर गए। मैंने अपनी मारुती कार निर्धारित स्थान पर एक ऑडी और एक बीएमडब्ल्यू कार के बीच पार्क कर दी। वहाँ उस टीम के मुख्य लीडर पहले से ही मेरा इंतज़ार कर रहे थे। मैं उन सभी का अनुशासन और व्यवस्था देख अभिभूत था। लीडर के साथ मैं सीधे ऑडिटॉरीयम में गया और ट्रेनिंग पूरी करी। यक़ीन मानिएगा दोस्तों, यह ट्रेनिंग मेरे जीवन की बेहतरीन ट्रेनिंग में से एक थी।

यहाँ तक तो सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा था। ट्रेनिंग के पश्चात कुछ लोग मुझे वापस मेरी गाड़ी तक छोड़ने आ रहे थे, उनमें से एक ने अचानक मुझसे कहा, ‘सर आप इतनी छोटी गाड़ी से क्यूँ आए हैं?’ मैंने कहा इसमें क्या समस्या है? वे बोले, ‘समस्या तो नहीं सर फिर भी यह आपके ऊपर सूट नहीं करती।’ मैं उसका उत्तर सुनकर हैरान था। मैंने उससे कहा, क्या बड़ी गाड़ी से आने से मेरी ट्रेनिंग और बेहतर हो जाती? जी नहीं। चलिए बताइए मेरी आज की ट्रेनिंग से आपने क्या सीखा?

वह कुछ जवाब नहीं दे पाया और ना ही मैंने उसका जवाब सुनने में अपना समय बर्बाद करना उचित समझा। गाड़ी में बैठकर मैं वहाँ से चला ही था कि मुझे कबीर से जुड़ी एक किवदंती याद आ गयी।

एक बार संत कबीर ने बड़ी मेहनत के साथ पगड़ी बनाई। इस पगड़ी को बनाने के लिए उन्होंने पहले तो झीना-झीना कपडा बुना, उस पर रंग चढ़ाया और फिर उसे गोलाई में लपेटा। सुंदर सी पगड़ी तैयार होने के पश्चात कबीर ने उसे बेचने का निर्णय लिया और उसे साथ लेकर हाट बाज़ार की ओर चल दिए। हाट बाज़ार में कबीर ने ऊँची आवाज़ में 'शानदार पगड़ी! जानदार पगड़ी! दो टके की भाई! दो टके की भाई!' चिल्ला-चिल्ला कर बेचने का प्रयत्न करने लगे।

उनके इस तरह प्रयास करने पर कई खरीददार उनके पास आने लगे, हर कोई पगड़ी को देखकर उसकी सुंदरता पर मोहित हो जाता था और ख़रीदने के पूर्व व्यक्ति अपनी आदत के अनुसार मोलभाव करने का प्रयास करने लगता, पर कबीर ने भी उसे दो टके में बेचने का मन बना रखा था, वे किसी से भी मोल-भाव करने के लिए तैयार नहीं थे। सुबह से शाम हो गयी लेकिन कबीर सुंदर पगड़ी को किसी को बेच नहीं पाए और पगड़ी लेकर वापस अपने घर आ गए।

घर में घुसने के पूर्व ही कबीर को उनके पड़ोसी मिल गए। कबीर को थका और परेशान देख उन्होंने उनसे प्रश्न किया, ‘क्या हुआ कबीर जी इतने परेशान क्यूँ नज़र आ रहे हैं?’ कबीर ने जवाब में दिनभर का पूरा वृतांत सुना दिया। पड़ोसी ने कबीर जी से पगड़ी ली और कहा, ‘आप चिंता ना करें, आपका यह कार्य मैं पूर्ण कर दूँगा।’

अगले दिन वे सज्जन कबीर जी वाली पगड़ी लेकर बाज़ार की ओर चल दिए और कबीर जी के माफ़िक़ ही ज़ोर-ज़ोर से बोलने लगे ''शानदार पगड़ी! जानदार पगड़ी! आठ टके की भाई! आठ टके की!' थोड़ा ही प्रयास करने पर एक खरीददार निकट आया और बोला, 'बड़ी महंगी पगड़ी हैं! दिखाना जरा!’ कबीर के पडोसी ने जवाब दिया, ‘पगड़ी भी तो शानदार है। ऐसी पगड़ी आपको और कही नहीं मिलेगी।’ खरीददार बोला, ‘थोड़ा ठीक दाम लगा लो भैया।’ पड़ोसी बोला, चलो ठीक है, ‘बोनी का वक्त है, आप सात टके दे देना।’ खरीददार बोला, ‘यह लो छः टके, और पगड़ी दे दो।’

पड़ोसी ने उसे पगड़ी दी और पैसे लेकर एक घंटे के भीतर ही वापस कबीर जी के पास आ गए और उनके चरणों में छः टके रखकर बोले, ‘महाराज पगड़ी बिक गई।’ छः टके देख कबीर जी हैरान थे अचानक ही उनके मुख से निकला-
        ‘सत्य गया पाताल में,
           झूठ रहा जग छाए।
दो टके की पगड़ी,
           छः टके में जाए।।’

जी हाँ दोस्तों, यही इस भौतिक युग का सच है, वहाँ से निकलते वक्त मैं सोच रहा था कि उस व्यक्ति ने मुझे बुलाया था या मेरी गाड़ी को। उन्हें मेरे ज्ञान की ज़रूरत थी या मेरे पास जो भौतिक साधन हैं उनकी। अगर आप जीवन में शांति चाहते हैं, सुखी रहना चाहते हैं तो आँखों को नहीं, दिल को सुकून देने वाली चीजों को तलाशें।

-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
dreamsachieverspune@gmail.com

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