फिर भी ज़िंदगी हसीन हैं...
सफल होने के लिए पहले ‘असफलता के डर’ को जीतें


Aug 4, 2021
सफल होने के लिए पहले ‘असफलता के डर’ को जीतें!
आज सुबह समाचार पत्र में पड़ी एक घटना ने अंदर तक झकझोर दिया। एक युवा ने मनचाहा परिणाम ना मिलने पर तो एक अन्य बच्चे ने ऑनलाइन गेम में नुक़सान होने पर आत्महत्या कर ली थी। दोनों ही खबरों को पढ़ने के बाद मेरे मन में मुख्यतः दो प्रश्न आए, पहला, क्या हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली और लालन-पालन के तरीक़े ने बच्चों को इतना कमजोर बना दिया है की वे छोटी-मोटी असफलता को भी डील करने में खुद को सक्षम नहीं पा रहे हैं? और दूसरा, क्या असफलता के बाद समाज का सामना करना इतना मुश्किल होता है कि व्यक्ति को अपना जीवन खत्म करना आसान लगता है?
जवाब कुछ भी हो दोस्तों एक बात तो तय है, किसी भी जीवन का इस तरह खत्म होना सही नहीं ठहराया जा सकता है। मेरा तो मानना है जिस तरह हम बच्चों या किसी की भी सफलता का जश्न बनाते हैं ठीक उसी तरह हमें असफलता को भी ख़ुशी-ख़ुशी, सहजता के साथ स्वीकारना सीखना होगा। आईए इसे मैं आपको एक कहानी के माध्यम से समझाने का प्रयास करता हूँ । यह कहानी कितनी सच है मुझे नहीं पता, लेकिन इस कहानी मैं छिपी सीख हमें असफलता से डील करने का नज़रिया ज़रूर सिखा सकती है।
एवरेस्ट पर विजय पाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने एक टीम का चयन किया था इस टीम में एडमंड हिलेरी भी एक सदस्य के तौर पर शामिल थे। इस टीम ने पूरी तैयारियों के साथ एवरेस्ट पर फ़तह पाने की कोशिश करी लेकिन प्रथम प्रयास में उन्हें असफलता हाथ लगी। इस असफलता से हतोत्साहित होने के स्थान पर एडमंड हिलेरी ने फिर से तैयारी करी और एक बार फिर नई ऊर्जा के साथ प्रयास किया। लेकिन ईश्वर को तो शायद कुछ और मंज़ूर था, वे इस बार भी असफल रहे।
वैसे उनकी इस असफलता में भी सफलता छुपी हुई थी क्यूँकि वे इस बार पिछली बार के मुक़ाबले ज़्यादा ऊँचाई तक पहुँच पाए थे। इस बार भी एवरेस्ट पर ना चढ़ पाने की खबर जैसे ही उनके दोस्तों को मिली उन्होंने एडमंड हिलेरी के प्रयास के सम्मान में एक पार्टी का आयोजन किया। इस पार्टी में सभी दोस्तों ने मिलकर एडमंड हिलेरी को एवरेस्ट की एक बड़ी तस्वीर उपहार में दी।
एडमंड हिलेरी ने बड़े प्यार से उस तस्वीर को स्वीकारा और उसकी और देखते हुए कहा, ‘मैं फिर आऊंगा, तुम्हारी ऊँचाई तब भी इतने ही रहेगी, पर मेरा हौसला पहले से और ज़्यादा ऊंचा हो जाएगा।’ सोच कर देखिए दोस्तों एडमंड हिलेरी को यह कहने की ऊर्जा कहाँ से मिली? निश्चित तौर से समाज से, क्यूँकि एवरेस्ट पर चढ़ने में पहले दो बार असफल होने के बाद भी समाज में किसी ने उन्हें तुच्छ या हीन नज़रों से नहीं देखा। ना ही किसी ने उनके ऊपर ‘फेल’ का ठप्पा लगाया। बल्कि इसके ठीक विपरीत समाज ने उनका हौंसला बढ़ाया, उन्हें विश्वास दिलाया की अगले प्रयास में वे निश्चित तौर पर अपने लक्ष्य में सफल होंगे।
इसी का परिणाम एवरेस्ट फ़तह करने के उनके तीसरे प्रयास में देखने को मिला। जिस चोटी को फ़तह करने के लक्ष्य में 63 देशों के लगभग 1200 पर्वतारोही असफल हुए थे, उस चोटी को 29 मई 1953 को सुबह के करीब साढ़े 11 बजे श्री एडमंड हिलेरी और तेनसिंघ ने फ़तह करा। यहाँ यह बताने की ज़रूरत नहीं है की इन तीनों प्रयास में श्री एडमंड हिलेरी और श्री तेनसिंघ ने अपनी जान जोखिम में डाली थी। दोस्तों जान जोखिम में डालकर भी अपने लक्ष्य, दुनिया की सबसे ऊँची चोटी पर विजय प्राप्त करने के लिए, कई दिनों तक जी तोड़ मेहनत करने का हौंसला उन्हें समाज व अपने परिवार से ही मिला था।
इसीलिए एक साक्षात्कार में श्री एडमंड हिलेरी ने कहा था, ‘मैंने नहीं सोचा था कि मैं मशहूर पर्वतारोही या एवरेस्ट विजेता बन जाऊंगा। ये सब अपने आप ही होता चला गया, ऐसे बहुत कम लोग होते हैं जो ये सोच पाते हैं कि उन्हें एक दिन विश्व विजेता बनना है।’
जी हाँ दोस्तों, असाधारण लक्ष्य, साधारण मनुष्य को असाधारण बना देते हैं। पर यह सिर्फ़ तभी सम्भव हो सकता है जब व्यक्ति असफल होने के डर पर विजय पा ले और इसके लिए समाज और परिवार को सकारात्मक भूमिका निभाना होगी, जिससे वे असाधारण लक्ष्य रखने वाले व्यक्ति के जीवन में असाधारण भूमिका निभा सकेंगे। याद रखिएगा दोस्तों, असफलता से बड़ा असफलता का डर होता है। अगर सफल होना है तो सबसे पहले इस डर को जीतना होगा।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

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