फिर भी ज़िंदगी हसीन हैं...
समाज के वास्तविक शिल्पकार - शिक्षक
Sep 5, 2021
समाज के वास्तविक शिल्पकार - शिक्षक
एक बेहतरीन शिक्षक वही हो सकता है, जो असाधारण सफलताओं के बाद भी साधारण इंसान की भाँति अपने जीवन मूल्यों के आधार पर अनुशासित जीवन जिए। आज मैं आपका परिचय ऐसे ही एक शिक्षक से करवाता हूँ, जिन्हें साहित्य में नोबेल पुरस्कार के लिए सोलह बार एवं शांति के नोबेल पुरस्कार के लिए ग्यारह बार नामित किया गया। साथ ही जिन्हें ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज, हॉर्वर्ड, प्रिंसटन एवं शिकागो विश्वविद्यालय जैसे विश्व के प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों द्वारा भी सम्मानित किया गया था।
वर्ष 1913 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें “सर” की उपाधि से नवाज़ा एवं वर्ष 1975 में अमेरिकी सरकार द्वारा उन्हें टेंपलटन पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष 1989 में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी ने उनकी याद में स्कॉलरशिप शुरू करी। इतना ही नहीं दोस्तों शब्दों एवं विभिन्न विषयों पर उनकी पकड़ इतनी मज़बूत थी कि उन्होंने अपने जीवन काल में 150 से ज़्यादा किताबें भी लिखीं।
हमारे देश के प्रथम प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू उनकी विलक्षण प्रतिभा के क़ायल थे। उनकी उपलब्धियों और प्रतिभा को देखते हुए श्री नेहरू ने भारत में उपराष्ट्रपति पद का सृजन करने में मुख्य भूमिका निभाते हुए, उसकी ज़िम्मेदारी इस शिक्षक को सौंपने की वकालत करी। 13 मई 1952 को वे भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति व 13 मई 1967 को वे भारत के दूसरे राष्ट्रपति चुने गए।
जी हाँ साथियों, आप सही पहचान रहे हैं मैं बात कर रहा हूँ, महान शिक्षक श्री सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी की, जिन्हें वर्ष 1954 में भारत का पहला ‘भारत रत्न ’ पुरस्कार दिया गया था और उनके प्रति सम्मान प्रकट करते हुए, हर वर्ष उनके जन्मदिवस 5 सितम्बर को हम शिक्षक दिवस के रूप में मनाते हैं।
श्री राधाकृष्णन का जन्म 5 सितम्बर 1888 को एक बेहद ग़रीब परिवार में, सर्वपल्ली नामक गाँव में हुआ था। उनके पिता उनकी शिक्षा बंद करवाकर उन्हें मंदिर में पुजारी बनाना चाहते थे, पर उन्होंने अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध पढ़ाई को अधिक महत्व दिया।
वे एक महान शिक्षक थे। उनका मानना था ‘वास्तविक शिक्षक, छात्रों के दिमाग़ में तथ्यों को जबरन ठूँसने की जगह, आने वाले कल की चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार करता है’। जिससे वे एक मुक्त रचनात्मक व्यक्ति के रूप में ऐतिहासिक परिस्थितियों और प्राकृतिक आपदाओं के विरुद्ध लड़ सके।
इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वे अपने ज्ञान से परिपूर्ण व्याख्यान को आनंददायक रूप में अभिव्यक्त करते थे। हल्की गुदगुदाने वाली कहानियों से उसे बहुत ही मनोरंजक बनाकर छात्रों को मंत्रमुग्ध कर देते थे। उनकी कोशिश अपने विषय को एकदम सरल लहजे में विद्यार्थियों को समझाने एवं अधिकतम मदद करने की रहती थी। इस वजह से छात्र उन्हें अपने मित्र के रूप में देखते थे। वे अपने हरेक छात्र को एक विशिष्ट उपनाम से पुकारते थे। उच्च नैतिक मूल्यों को अपने आचरण में उतारने के लिए वे हर छात्र को प्रेरणा देते थे।
वे शिक्षा को नियमों में नही बांधना चाहते थे। खुद एक शिक्षक होने के बाद भी वे विश्वविद्यालय में अपनी कक्षा में कभी देर से आते तो कभी जल्दी चले जाते थे क्यूँकि उनका मानना था कि किसी भी पाठ को समझाने के लिए 20 मिनट का समय पर्याप्त है।
1909 में 21 वर्ष की उम्र में राधाकृष्णन ने मद्रास प्रेसीडेन्सी कॉलेज में दर्शन शास्त्र के कनिष्ठ व्याख्याता के तौर अपने मनपसंद कार्य, पढ़ाने की शुरुआत करी। यहाँ वे सात वर्षों तक भारतीय धर्म और दर्शन के अध्यापन का कार्य करते हुए स्वयं भी अध्ययनरत रहे। व्याख्याता पद के लिए शिक्षण के प्रशिक्षण की आवश्यकता की पूर्ति के लिए 1910 में उन्होंने मद्रास में प्रशिक्षण लेना प्रारम्भ किया। वहाँ उन्होंने अपने प्रोफ़ेसर से दर्शन शास्त्र की कक्षा में अनुपस्थित रहने की आज्ञा माँगी। तत्कालीन प्रोफ़ेसर राधाकृष्णन के दर्शन शास्त्र के ज्ञान से अभिभूत थे। उन्होंने कक्षा से अनुपस्थित की माँग को स्वीकृत करते हुए उनके स्थान पर दर्शन शास्त्र की कक्षाओं को पढ़ाने का कहा।
राधाकृष्णन ने तेरह प्रभावशाली व्याख्यान लेकर सहपाठियों को चकित कर दिया एवं इन्हीं व्याख्यानों पर आधारित उनकी पहली पुस्तक 1912 में ‘मनोविज्ञान के आवश्यक तत्व’ नाम से प्रकाशित हुई।
मैसूर यूनिवर्सिटी से कलकत्ता स्थानांतरण होने पर छात्रों ने उन्हें फूलों से सजी बग्गी पर सम्मान सहित बैठाते हुए घोड़ों की जगह खुद खींचा और रेलवे स्टेशन तक ले गए। मैसूर स्टेशन पर भी लोगों ने आँखों में आंसू लिए, ‘सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी की जय हो’, के नारे लगाए।
विद्यार्थियों के प्रश्न, ‘क्या आप उच्च अध्ययन के लिए विदेश जाना पसंद करेंगे’ पर उन्होंने जवाब दिया, ‘नहीं, लेकिन वहाँ शिक्षा प्रदान करने के लिए अवश्य ही जाना चाहूँगा।’
इसी तरह लन्दन में एक रात्रि के खाने पर एक ब्रिटिश नागरिक ने कहा कि ‘भारतीय काली चमड़ी के होते हैं।’ यह सुनकर डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी ने धीरे से उत्तर दिया, “भगवान ने एक बार एक ब्रेड के टुकड़े को पकाया, जो जरूरत से ज्यादा पक गया, वे ‘नीग्रो’ कहलाते हैं। उसके बाद भगवान ने दोबारा एक ब्रेड को पकाया जो इस बार कुछ अधपका पका, वो कहलाते हैं ‘यूरोपियन’। उसके बाद भगवान ने सही तरीके से सही समय तक उस ब्रेड को पकाया जो अच्छे तरीके से पका उन्हें कहते हैं ‘भारतीय’।”
भारत की आज़ादी के दिन 14-15 अगस्त 1947 की रात्रि को जवाहर-लाल नेहरू जी चाहते थे कि राधाकृष्णन जी अपनी संभाषण प्रतिभा का उपयोग करते हुए रात्रि ठीक बारह बजे तक संविधान के इस ऐतिहासिक सत्र को सम्बोधित करें। डॉक्टर राधाकृष्णन जी ने उनकी आशानुसार रात्रि ठीक 12 बजे अपना व्याख्यान समाप्त किया। इसके बाद संवैधानिक संसद द्वारा शपथ ली गई और देश आज़ाद हो गया। 13 मई 1952 को वे भारत के पहले उपराष्ट्रपति एवं इसके बाद 13 मई 1962 को वे भारत के दूसरे राष्ट्रपति बनाए गए।
उनके कार्यकाल में जब भी संसद भवन में दो राजनीतिक पार्टियों के बीच गर्म माहौल बना, डॉक्टर राधाकृष्णन ने बहुत आसानी से सम्भालते हुए उसे पारिवारिक सभा में बदल दिया। राष्ट्रपति बनने के बाद भी सप्ताह में दो दिन कोई भी उनसे बिना अपॉइंटमेंट मिल सकता था।
17 अप्रेल 1975 को 86 वर्ष की उम्र में मद्रास में उन्होंने अपनी देह को त्याग दिया। उनका पूरा जीवन ही एक पाठ स्वरूप था, आइए, उनके दिखाए रास्ते पर चलकर एक नए शिक्षित भारत का निर्माण करते हैं।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर