दैनिक भास्कर - मैनजमेंट फ़ंडा
एन. रघुरामन, मैनजमेंट गुरु
क्या बच्चों की पिटाई नुकसानदेह है


July 3, 2021
क्या बच्चों की पिटाई नुकसानदेह है?
‘बस में ही जाना है’, यह कहकर आज भी मेरा मजाक उड़ाया जाता है। बचपन में, शायद तीन साल की उम्र में मुझे मेरे पिता नागपुर के चिड़ियाघर, महाराजा पार्क ले गए थे। वहां उन्होंने मोलभाव कर 12 पैसे की एक खिलौना बस खरीदी थी, जो उस ठेले पर सबसे महंगी थी। रास्ते में असली बस देखकर मुझे अहसास हुआ कि इसमें बैठ भी सकते हैं और मैं जिद करने लगा। मेरे पिता ने समझाने की कोशिश की कि बस अगले स्टॉप, वैरायटी स्क्वेयर तक ही जाएगी और वहां से हमें वैसे भी पैदल घर जाना पड़ेगा क्योंकि बसें आज भी सीताबल्डी मैन रोड नहीं जाती, जहां हमारा घर था।
मैं जिद पर अड़ गया और बीच सड़क पर बैठकर चीखने लगा, ‘बस में ही जाना है।’ इससे सामने से आ रही बस रुक गई क्योंकि तब सड़कें संकरी होती थीं। ड्राइवर ने माथा पीट लिया, जिसका मतलब मेरे पिता ने निकाला, ‘कैसा बच्चा पाल रखा है।’ फिर मुझे बताने की जरूरत नहीं कि मेरे साथ क्या हुआ। मेरी वहीं, सबसे सामने बहुत पिटाई हुई। चूंकि पीटने वाले मेरे पिता और पिटने वाले बेटे यानी मेरी यह पहली पिटाई थी, इसलिए परिवार में यादगार बन गई और आज भी बुजुर्ग इसकी चर्चा करते हैं, जब घर की नई पीढ़ी जिद करती है।
मुझे यह मजाक तब याद आया जब मैंने नया अध्ययन पढ़ा जिसके मुताबिक पिटाई से बच्चों का व्यवहार और बुरा होता है। यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के शोधकर्ताओं का दावा है कि ‘शारीरिक सजा और व्यावहारिक समस्याओं, जैसे आक्रमकता तथा असमाजिक व्यवहार के बीच संबंध है।’ दो दशक का शोध कहता है कि जो बच्चे पिटते हैं, उनके अंदर गुस्से और निराशा की भावना रह जाती है, जो इस अहसास का नतीजा है कि उनके माता-पिता बिना शर्त प्रेम नहीं करते। लैंसेट मैग्जीन में प्रकाशित शोध का सार है कि ‘बच्चे की पिटाई माता-पिता की ओर से सामना करने की ऐसी रणीनीति है, जो अनुकूल नहीं है। माहौल की गहमागहमी में पैरेंट्स बड़प्पन दिखाएं और हाथ उठाने की बजाय परिस्थिति को शांति से संभालें। बच्चे उनके साथ हिंसा के अनुभव को हिंसा नहीं बता पाते।’
जब शोधकर्ताओं ने बच्चों के कुछ व्यवहार, जैसे स्कूल में बेंच को लात मारना या खेल में साथी खिलाड़ी को धक्का देना आदि देखे तो पाया कि इसके पीछे इन बच्चों की पिटाई थी, जिसका गुस्सा वे कहीं और निकाल रहे थे।
शायद शोध आज की दुनिया में ज्यादा प्रासंगिक है, जहां शिक्षा की मार्क्स और खेल की जीत से तुलना होती है। हमारे दिनों में अध्ययन ज्ञान के लिए और खेल शारीरिक व्यायाम के लिए थे। तब भी विजेता होते थे, लेकिन जिंदगी के हर क्षेत्र में नहीं। जब बच्चा जिंदगी में कुछ करता था तो वे कहते थे, ‘अच्छा कर रहा है।’ आज हम उनके पद बताते हैं, दौलत गिनते हैं। हम समाज की निगरानी में बड़े हुए, जो चाहता था कि हम अच्छा करें। आज हम परिवार की निगरानी में बड़े हो रहे हैं, जो चाहता है कि बच्चे सर्वश्रेष्ठ सफलता पाएं। हमारे माता-पिता हमारी उपलब्धियां दिखाते थे, लेकिन आज हम अपने बच्चों की उपलब्धियों की शेखी बघारते हैं। हम सिर्फ आकार में नहीं, सोच में भी ‘न्यूक्लियर’ हो गए हैं। शायद यही कारण है कि पिटाई से गुस्सा और फिर बुरा व्यवहार पैदा हो रहा है।
फंडा यह है कि अगली पीढ़ी को भावनात्मक रूप से मजबूत बनाने के लिए हमें ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का सिद्धांत अपनाना होगा, जहां पिटाई के पीछे भी एक अच्छा उद्देश्य हो।