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   दैनिक भास्कर - मैनजमेंट फ़ंडा    
एन. रघुरामन, मैनजमेंट गुरु 

खुशी पाने के लिए कुछ न करें

खुशी पाने के लिए कुछ न करें
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Sep 1, 2021

खुशी पाने के लिए कुछ न करें !


हम जिंदगी में सबकुछ अच्छा महसूस करने के लिए करते हैं। इससे बेहतर है कि अच्छा महसूस करते हुए जिंदगी में कुछ करें जैसा पंजाब के बरनाला जिले में बडबर गांव के जवांधा परिवार ने किया।


हरविंदर सिंह (40), परमजित सिंह (36) और हरजिंदर सिंह (33) के पिता जोरा सिंह बच्चों को मैट्रिक तक ही पढ़ा सके लेकिन जिंदगीभर उनके सामने कुछ ऐसा किया कि पिता के जाने के बाद वही बच्चों की जिंदगी का मिशन बन गया। जोरा सिंह 13 एकड़ में से एक एकड़ जमीन पर परिवार के इस्तेमाल के लिए सब्जियां, फल और रसायन-मुक्त फसल उगाते थे। फिर 2014 में उनके देहांत के बाद परिवार ने यह जारी रखा लेकिन सबसे बड़े बेटे हरविंदर को गेहूं से एलर्जी और परमजित की बेटी को आंत में समस्याएं होने लगीं। पोस्ट ग्रैजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च, चंडीगढ़ से पास एक छात्रा ने पाया कि इसका कारण फसल में केमिकल का इस्तेमाल है। फिर परिवार ने जैविक खेती अपना ली और 2017 तक वे पूरी खेती जैविक तरीकों से करने लगे। गेहूं उत्पादन के लिए वे अब भी रसायन इस्तेमाल करते हैं, लेकिन इन्हें आक, नीम, धतुरा और गाजरबूटी से बनाते हैं।


यह परिवार के लिए भोजन से सेहत का सबक था। आज वे 45 फसलें, 35 औषधीय पौधे-बूटियां उगाते हैं और फसल बेचने के लिए कमीशन एजेंट पर निर्भर नहीं हैं क्योंकि उनकी ड्रैगन फ्रूट जैसी कुछ फसलें 400 रुपए प्रति किग्रा तक बिकती हैं, साथ ही एडवांस बुकिंग भी होती है। वे पौधों की बिक्री, जड़ी-बूटियों की प्रोसेसिंग और मार्केटिंग भी करते हैं। उन्होंने जैविक खेती के जादू को पा लिया।


महाराष्ट्र में कोल्हापुर के पास शिरोल तालुका के शेडशल गांव के महादेव मगदम परिवार को उदाहरण देखें। परिवार ने 1990 के दशक में खेती बंद कर दी क्योंकि अत्यधिक सिंचाई से खेत खारे और बंजर हो गए थे। वयस्क दूसरों के खेतों में काम करने लगे और युवा दिहाड़ी कामगार बन गए। वहां कई खेत पांच दशकों से बंजर पड़े थे। आज महादेव (44) को उम्मीद है कि उनके दो एकड़ खेत में 100 टन गन्ना होगा। यह संभव हुआ है भूमि सुधार/संशोधन प्रयास से, जिसमें महादेव तीन साल पहले शामिल हुए। उनकी तरह सैकड़ों किसानों ने परियोजना का लाभ लिया है। इसे ‘शिरोल पैटर्न’ कहते हैं, जिसमें किसान खुद के कोऑपरेटिव बनाते हैं, कर्ज लेकर सतह के नीचे नालियों का नेटवर्क बनाने में खर्च करते हैं, जिसमें खेत से छेद वाले पाइप नाली से जुड़े होते हैं, जिससे अतिरिक्त पानी और नमक बाहर निकल जाते हैं।


ऐसा भूमि सुधार जमीनी संपत्ति को स्थायी क्षय से बचाकर फसल का पोषण बढ़ाता है, जिससे हमारा खाना भी पौष्टिक होता है। यह किसानों को शहर पलायन से भी रोकता है। पहले ‘अनुपजाऊ’ भूमि बताकर बैंक कर्ज देने से मना कर रहे थे। आज ऐसी सहकारी विधियों ने उन लोगों की सोच बदली है, जो फिर खेती करने के इच्छुक नहीं थे। श्री दत्ता कोऑपरेटिव शुगर फैक्ट्री के चेयरमैन गणपतराव पाटिल किसानों का मार्गदर्शन कर रहे हैं। दिलचस्प है कि केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री शोभा करांदलाजे ने भी पाटिल को सहकारी विधि समझाने बुलाया, ताकि देश के अन्य हिस्सों में भी इसे अपना सकें। याद रखें, भारत में अब भी 67 लाख हेक्टेयर जमीन जोतने योग्य नहीं है।


फंडा यह है कि खुशी पहले से लिया गया एक फैसला है। ऐसा कर देखें कि खुशी के लिए कुछ न करें, बल्कि खुशी-खुशी कुछ करें और नतीजे देखें।

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