दैनिक भास्कर - मैनजमेंट फ़ंडा
एन. रघुरामन, मैनजमेंट गुरु
बच्चों पर लॉकडाउन के असर की अनदेखी


Aug 26, 2021
बच्चों पर लॉकडाउन के असर की अनदेखी
मेरी कॉलोनी में जब भी बच्चे खेलते हुए चीखते हैं, मेरे कुत्ते भौंकने लगते हैं। कुत्ते पालने वाले यह समझ सकते हैं। मुझे पालतुओं को बताना पड़ता है कि बच्चे खेल रहे हैं। फिर वे पंजों पर कूदकर यह दिखाने पर जोर देते हैं कि मैं सच बोल रहा हूं। मैंने खिड़की के पास एक तख्त लगा दिया है, जिसपर बैठकर वे बच्चों को खेलते देख पाएं।
लेकिन पिछले कुछ दिनों से वे ज्यादा नहीं भौंक रहे क्योंकि आजकल शाम को खेल में बच्चों की भागीदारी कम हो रही है। माता-पिता अनजाने कारणों के अलावा तीसरी लहर के डर से भी बच्चों को कॉलोनी के बगीचे में जाने से रोक रहे हैं।
स्कूल अब भी पूरी तरह नहीं खुले, जिससे बच्चे दिनभर घर में ही रहते हैं। मुझे लगता है कि शाम को उन्हें छोटा-सा ब्रेक न मिलने से उनका सामाजिक मेलजोल का कौशल प्रभावित होता है, जिससे भविष्य में वे तीव्र व्यवहार दिखा सकते हैं। कुछ शिक्षा विशेषज्ञ और बाल मनोचिकित्सक, जो मेरे मित्र हैं, मुझसे कई मर्तबा कह चुके हैं कि ऑनलाइन लर्निंग संकट के समय अच्छा विकल्प थी लेकिन पूरी तरह वास्तविक स्कूल की जगह नहीं ले सकती।
बच्चों के धीरे-धीरे अकेले पड़ने की इस उभरती परिस्थिति ने मुझे इस हफ्ते बच्चों वाले कुछ घरों में जाने मजबूर किया। मुझे हैरान करने वाली नई समस्या पता चली। दो साल से कम उम्र के ज्यादातर बच्चे ‘कंटेनर बेबी’ बन रहे हैं। यह क्या है? एक ‘कंटेनर बेबी’ वह नवजात शिशु है, जिसे दिन के ज्यादातर समय किसी कंटेनर (पात्र) जैसे कार की सीट, स्ट्रोलर (झूला) में रखा जा रहा है। इससे होने वाली परेशानियों को ‘कंटेनर बेबी सिंड्रोम’ नाम दिया गया है। इससे बच्चे में गतिविधि, समझ और सामाजिक मेलजोल संबंधी परेशानियां और अपंगता भी हो सकती हैं।
‘कंटेनर बेबी’ का अर्थ है बच्चे को फीडिंग चेयर या बच्चा गाड़ी या काऊच सीट या किसी भी ऐसी चीज में लेटाना या बैठाना, जिसमें बच्चे का हिलना-डुलना सीमित होता है। यह शब्द भारत में कम, विदेश में ज्यादा सुनने मिलता है। अर्ली चाइल्डहुड एसोसिएशन के हालिया सर्वे में पाया गया कि पिछले एक वर्ष से भारत में कम से कम 63% पैरेंट्स ने हर दिन 6 घंटे से ज्यादा बच्चों को किसी न किसी कंटेनर में रखा और 82% पैरेंट्स ‘कंटेनर बेबी’ शब्द से अनजान थे। गतिविधि सीमित करने वाली चीजों के इस्तेमाल के अलावा कई पैरेंट्स उन्हें स्क्रीन (मोबाइल आदि) भी देते हैं ताकि बच्चे ‘व्यस्त लेकिन शांत’ रहें। विशेषज्ञ चेताते हैं कि ऐसे प्रतिबंध बच्चों की स्वायत्तता और विकास बाधित करते हैं। बच्चे को एक ही जगह सीमित रखने से माता-पिता की सहभागिता भी सीमित होगी। वे बच्चे को ऐसे प्रोत्साहन और गतिविधियां नहीं दे पाते जो उनके मस्तिष्क को विकसित होने और बाकी अंगों से संपर्क करने में मदद करती हैं। एक मनोचिकित्सक ने मुझसे कहा कि ‘पैरेंट्स बच्चों को खुलकर गतिविधि करने दें और उन्हें ‘इम्पर्फेक्ट’ होने दें।’ याद रखें कि यह नियम सिर्फ शिशुओं के लिए नहीं, बल्कि स्कूली बच्चों के लिए भी है। शायद हम कोविड के कारण हुए लॉकडाउन और सामाजिक प्रतिबंधों से बच्चों पर हुए असर को नजरअंदाज कर रहे हैं, खासतौर पर उनके मानसिक स्वास्थ्य को लेकर।
फंडा यह है कि ‘बच्चा है’ कहकर नकारने से पहले बच्चों के व्यवहार में हर बदलाव का आंकलन करना चाहिए। वर्ना हमारा समाज हमें दोष देगा कि हमने पूरी एक पीढ़ी बर्बाद कर दी।