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   दैनिक भास्कर - मैनजमेंट फ़ंडा    
एन. रघुरामन, मैनजमेंट गुरु 

भविष्य में ‘मंकी कर्मचारी’ मिलना मुश्किल होंगे

भविष्य में ‘मंकी कर्मचारी’ मिलना मुश्किल होंगे
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June 13, 2021

भविष्य में ‘मंकी कर्मचारी’ मिलना मुश्किल होंगे!

बचपन से ही उसे ये कहा गया कि जिंदगी में सफल होने के लिए कक्षा में अव्वल रहना होगा। छोटे शहर में रहने वाला उसका परिवार बड़े शहर की सबसे बड़ी कंपनी में काम करने के उसके सपने को सींचता रहा। उसने न सिर्फ पहली कक्षा बल्कि स्नातकोत्तर तक ऐसा ही किया। कॉलेज में अहसास हुआ कि बड़ी कंपनियां गैरअनुभवी अकादमिक टॉपर्स को नौकरी पर नहीं रखतीं। अपने देश की सबसे बड़ी कंपनी में बतौर टीम लीडर नौकरी पाने के लिए वह यूनिवर्सिटी जीवन के आखिरी पांच सालों में कई कंपनियों में इंटर्न रहा। चार महीनों में ही कंपनी ने तेजी से विस्तार किया, कर्मचारी दोगुने हो गए। कंपनी जिस ‘पैमाने और गति’ (कई नए प्रबंधन इस शब्द को अपनाना पसंद करते हैं।) से बढ़ी, उसे ये भा रहा था। सिर्फ एक ही चीज उसे परेशान कर रही थी कि कम पढ़े-लिखे लोगों को भी चुन लिया था। कंपनी में 6 महीने काम करने के बाद एक दिन मैनेजर ने 4 और अन्य टीम लीडर्स के साथ उसे बुलाया। वे लीडर सिर्फ स्नातक थे। बुलाकर कहा कि उनमें से कोई एक इस साल के अंत में ‘लूजर’ होगा।

कुछ बड़ी टेक कंपनियों में ‘लूजर’ एचआर का वह तरीका है, जहां कर्मचारियों को मूल वेतन तो मिलता है पर साल के अंत में चार-पांच लोगों के समूह में लूजर को छोड़कर बाकी सबको मोटा बोनस मिलता है। ऊपर जिसका नाम मैंने उजागर नहीं किया आखिर में जाकर वह लूजर ही बना। सुबह 9 से रात के 9 बजे तक काम करने के बावजूद सॉफ्टवेयर बनाने वाले युवाओं के बीच लूजर का ठप्पा लगने से गंंभीर मनोवैज्ञानिक मसले सामने आ रहे हैं। कुछ ये ठप्पा हटाने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं, वहीं कुछ चुपचाप काम पर वापस आ जाते हैं।

टीम लीडर और उसकी टीम पर मैनेजर की इस तरह की दबाव वाली रैंकिंग को लेकर नई पीढ़ी सतर्क है क्योंकि उनके कुछ वरिष्ठकर्मियों ने इसके चलते आत्महत्या करने की कोशिश की- कुछ गुजर गए और कुछ को आखिरी मौके पर बचा लिया गया। वहीं कुछ ने नौकरी छोड़ दी या पेशा ही पूरी तरह बदल लिया।

यहां तक कि चीनी सॉफ्टवेयर निर्माता उनके काम के हालातों पर अंतरराष्ट्रीय जागरूकता फैलाने के लिए ‘996 ICU’ नाम से एक अभियान चला रहे हैं। ये नाम भी टेक कर्मियों के बीच आम बोलचाल से निकला है, जिसके अनुसार प्रबंधकों की मांग पर अगर आप 9 से 9 और सप्ताह में 6 दिन काम करते हैं, तो अंतत: आपको आईसीयू में जाना पड़ेगा। इस अभियान में 200 से अधिक चीनी कंपनियों पर कर्मचारियों के साथ दुर्व्यवहार के आरोप लगाए हैं। बिना किसी रचनात्मकता के वही-वही तकनीकी काम दोहराने वाले युवा खुद को खेतिहर मजदूर की तरह ‘कोड बंधुआ’ मानने लगे हैं। इससे बिल्कुल वैसा ही अहसास हो रहा है जैसा 1990 में सिलिकॉन वैली के डेवलपर खुद को ‘कोड मंकीज़’ कहते थे। शायद ये एक कारण हो सकता है कि उन दिनों हम आईटी में काम करने वाले कुछ युवाओं को उल्लुओं की तरह रात-रातभर जागता हुआ देखते थे क्योंकि लोगों से बात करने के लिए उनके पास वही एकमात्र खाली समय होता था।

हालांकि भारत में इस तरह की जबरन रैकिंग वाली प्रथा नहीं है, लेकिन ‘पैमाने और गति’ अभी भी कइयों की पसंद है। इसे तो फिर भी समझा जा सकता है क्योंकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रभावी प्रतिस्पर्धा के लिए ये एक बहुत ही आवश्यक उपकरण है। नई पीढ़ी इस तरह के होड़-मुआवजे वाले तंत्र का हिस्सा नहीं बनना चाहती पर हां स्मार्ट, कड़ी मेहनत के साथ, ‘कोड मंकी’ बने बिना प्रतिस्पर्धी रहना चाहती है।

फंडा यह है कि नई पीढ़ी के दिमाग में उतरें, जो पैसे से खरीदे जा सकने वाले जीवन स्तर के बजाय अब जीवन की गुणपत्ता को पसंद कर रही है। उनकी भावनाओं की कद्र करें, वे वाकई में अभिनव हैं।

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