दैनिक भास्कर - मैनजमेंट फ़ंडा
एन. रघुरामन, मैनजमेंट गुरु
यहां मशीनें मानव को मात नहीं दे सकतीं


Aug 3, 2021
यहां मशीनें मानव को मात नहीं दे सकतीं
बैंकों और अन्य वित्तीय व्यापारों में मशीनों ने ग्राहक के अनुभव में क्रांति ला दी है। सुपरमार्केट में मानव-रहित भुगतान काउंटर और स्टोर से लेकर ऑपरेशन थियेटर में मुश्किल प्रक्रियाओं में सर्जन की मदद करने वाले कमप्यूटर और रोबोट तक, न सिर्फ दुनिया, बल्कि भारत में भी इनके बारे में सुनते रहते हैं। ड्राइवरलेस ट्रक और कार की दुनियाभर में चर्चा है। ऐसे प्रयोग पुष्टि करते हैं कि जिन क्षेत्रों में बहुत बारीकी से काम की जरूरत है, वहां मशीनें इंसान से बेहतर काम कर सकती हैं।
विदेश में मशीनें भोजन तक पकाने लगी हैं। वहां ‘आर-किचन’ नामक आधुनिक रोबोटिक रसोई है, जहां घर की महिला को परेशान किए बिना हर सदस्य की जरूरत के मुताबिक खाना बन जाता है। कई लोग मानते हैं कि ‘आर-किचन’ होटल इंडस्ट्री में सबसे महंगे कर्मचारी में एक, मास्टर शेफ की जगह ले लेगा।
शायद इसीलिए एविएशन इंडस्ट्री में भी शोध हो रहा है कि क्या आसमान में मशीनें पायलट की जगह ले सकती हैं क्योंकि पायलट सबसे ज्यादा वेतन पाने वालों में शामिल हैं। हो सकता है भविष्य में ये कम्प्यूटर बिना पायलट के समुद्रतल से 35,000 फीट की ऊंचाई पर एयरक्राफ्ट में सैकड़ों यात्रियों को उड़ाएं और उड़ान व लैंडिंग का प्रबंधन करें।
लेकिन ये मशीनें वैसा कुछ नहीं कर सकतीं, जैसा महाराष्ट्र में बारामती की सुप्रिया अगावाने और सोलापुर की अनिता जाधव ने किया। दोनों जिला परिषद स्कूल में शिक्षक हैं। चौंक गए? आगे पढ़ें।
कोविड-19 महामारी के दौरान छात्रों के लिए शिक्षा की गुणवत्ता में कमी को लेकर जताई जा रही तमाम चिंताओं के बीच पढ़ाई सुविधाजनक बनाने के लिए ये ग्रामीण शिक्षिकाएं स्वतंत्र रूप से अनोखा समाधान लेकर आईं। वे चिंतित थीं कि कोविड ने छात्रों की स्कूली शिक्षा रोक दी है, इसलिए उन्होंने स्कूल को छात्रों तक पहुंचाने का फैसला लिया। इस अनोखी पहल ‘घरो-घरी-शाला’ (हर घर स्कूल है) के तहत दोनों शिक्षिकाएं अपने छात्रों के घर जातीं और वहां किसी कमरे, कोने या किसी भी उपलब्ध जगह को बच्चों के स्कूल में बदलने का काम करतीं। लक्ष्य पूरा करने के लिए सुप्रिया ने रोजाना 120 किमी, तो अनीता ने रोजाना 60 किमी यात्रा की। उनका लक्ष्य छात्रों की मूल चीजों को दोहराने और लगातार अभ्यास करने में मदद करना था, ताकि जब भी स्कूल खुलें, छात्र तैयार रहें। इनमें ज्यादातर माता-पिता खुद नहीं पढ़ा सकते, क्योंकि वे शिक्षित नहीं हैं।
ऑनलाइन क्लास के बावजूद, आर्थिक रूप से पिछड़े इलाकों के छात्र महामारी में बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं क्योंकि वे इनमें सहज नहीं हैं। ऐसी पहल शिक्षा को जारी रखती हैं और छात्रों को व्यस्त भी रखती हैं। अगर वे अल्फाबेट जानते हैं, जो शब्द और वाक्य बना पाते हैं और अंतत: किताब पढ़ पाते हैं। अब स्कूल उनके ही घर में है, तो बच्चों की शिक्षा में माता-पिता की भागीदारी भी बढ़ती है। संक्षेप में यह सुप्रिया और अनिता का ईमानदार प्रयास है कि सबकुछ सामान्य होने पर बच्चे यह महसूस न करें कि वे कहीं पीछे रह गए हैं।
मैं इससे सहमत हूं कि मशीनें कई बारीक काम इंसानों से बेहतर ढंग से कर सकती हैं, लेकिन निश्चिततौर पर वे प्रेम, परवाह और सहानुभूति पैदा नहीं कर सकतीं, जो मूल रूप से मानव सामाज को चलाते हैं।
फंडा यह है कि बच्चों की उदारता के साथ बढ़ने में मदद करें क्योंकि मशीन कभी वह अहसास नहीं दे सकती, जो ईश्वर ने सिर्फ जीवित प्रजातियों को ही दिया है।

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