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Writer's pictureNirmal Bhatnagar

अकर्मण्यता संतोष का पर्याय नहीं…

Feb 5, 2024

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…



दोस्तों, निश्चित तौर पर आपने भी कभी ना कभी यह ज़रूर सुना होगा कि ‘संतोषी सदा सुखी और लोभी सदा दुखी!’ अर्थात्, ‘जो प्राप्त है, वह पर्याप्त है!’ को आधार बनाकर जीने वाले लोग सदा सुखी रहते हैं और जो सब कुछ होने के बाद भी लालच के चलते इकट्ठा करने के भाव से जीते हैं, वे सदा दुखी रहते हैं। साधारण से लगने वाले इस सूत्र का अक्सर लोग अपनी सहूलियत के हिसाब से अर्थ निकाल लेते हैं और अकर्मण्यता को संतोष का पर्याय मान लेते हैं। दूसरे शब्दों में कहूँ, तो संतोषी रहने का मतलब यह नहीं है कि आप कर्म प्रधानता के सूत्र को भूल जाएँ।


दोस्तों, मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि अक्सर मैंने लोगों को संतोष के विषय में ग़लत भाव से जीते हुए देखा है। वे अक्सर प्रयत्न करे बिना अर्थात् कर्म किए बिना ही क़िस्मत के भरोसे बैठने को संतोषी होना मान लेते हैं, जो पूरी तरह से ग़लत है। अकर्मण्य रहते हुए जीना अथवा बिना प्रयत्न किए मनचाहे फल की आस में बैठे रहने का नाम संतोष नहीं है। संतोष तो निरंतर प्रयत्नशील बने रहकर परिणाम के प्रति अनासक्त बने रहना है। दूसरे शब्दों में कहूँ, तो गीता के सूत्र, ‘कर्म किए जा, फल की चिंता ना कर!’, को आधार मान कर अपना सर्वश्रेष्ठ देना ही संतोष का दूसरा नाम है।


वैसे भी अगर आप इसे दूसरे नज़रिए से देखेंगे तो पायेंगे कि अकर्मण्यता; आक्रोश और असंतोष को जन्म देती है। इसलिए मेरा मानना है कि अकर्मण्य रहते हुए संतोष की आस रखना ही बेमानी है। अगर आप वाक़ई संतोषी बनना चाहते हैं या संतोष के साथ जीवन जीना चाहते हैं तो हमेशा प्रयत्न करने में, उद्यम करने में, पुरुषार्थ करने में असंतोषी रहो। अर्थात् प्रयास की अंतिम सीमाओं तक जाओ; अथक प्रयास करो और परिणाम के प्रति अनासक्त रहो।


हो सकता है दोस्तों, आप में से कुछ लोग मेरी बात से सहमत ना हों। ऐसे सभी साथियों को यह भी लग सकता है कि आज के भौतिक युग में फल के विषय में सोचे बग़ैर, सफलता का स्वाद कैसे चखा जा सकता है? तो ऐसे लोगों से मैं कहना चाहूँगा कि सबसे पहले आपको अपनी सफलता की परिभाषा को तय करना होगा क्योंकि सफलता का अंतिम लक्ष्य संतोष पूर्ण जीवन जीना ही है। इसीलिए दोस्तों, हमारी संस्कृति में संतोषी जीवन जीने को इतना महत्वपूर्ण बताया गया है।


दोस्तों, अब अगर आप मेरी बात से सहमत हों तो अंत में हम संतोषी जीवन जीने के सूत्र पर चर्चा कर लेते हैं, जो दो हिस्सों में बंटा हुआ है। पहला कर्म और दूसरा परिणाम, कर्म करते समय सब कुछ मुझ पर ही निर्भर है, हमें इस भाव से कार्य करना चाहिए और कर्म करने के बाद यह नज़रिया अपना लेना चाहिये कि इस दुनिया में सब कुछ प्रभु पर ही निर्भर है। ईश्वर के प्रति इस भाव से शरणागत होना आपको अनावश्यक चिंताओं से मुक्त कर देता है और आप मानसिक तौर पर शांत हो जाते हैं। यही मानसिक शांति आपको अंततः संतोष पूर्ण जीवन जीते हुए सुखी बनाएगी।


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

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