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अगर रहना है खुश तो उतार फेंके नकारात्मकता का बोझ…

Writer's picture: Nirmal BhatnagarNirmal Bhatnagar

May 16, 2024

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, खुश रहना या दुखी, चिंतित रहते हुए परेशानी में अपनी ज़िंदगी बिताना, मेरी नज़र में आपके अपने याने स्वयं के चुनाव पर निर्भर करता है। अर्थात् जीवन में सुख भी आप चुनते हैं और दुख भी। एक बार यही प्रश्न एक सज्जन ने एक बहुत ही पहुँचे हुए संत से पूछ लिया। संत ने उन सज्जन से कहा इस प्रश्न के जवाब के लिए आपको मेरे साथ कुछ घंटे बिताना होंगे। वे सज्जन तुरंत इसके लिए तैयार हो गए।


संत ने उन सज्जन को अपने जीवन के कुछ रोचक क़िस्से सुनाना शुरू कर दिए और फिर अचानक ही उठ कर जंगल की ओर चलने लगे। अब तक वे सज्जन संत की रोचक बातों में खो से चुके थे, संत के जंगल की ओर चलते ही वे भी अपने स्थान से उठे और संत के पीछे-पीछे चलने लगे। संत द्वारा कही जा रही बात इतनी अच्छी और ज्ञानवर्धक थी कि उन सज्जन को ऐसा लगने लगा मानो यह सफ़र; यह बातचीत कभी ख़त्म ही नहीं होना चाहिये।


कुछ देर तक यूँ ही चलते रहने के बाद अचानक ही संत राह में पड़े एक बड़े से पत्थर को देखकर रुक जाते हैं और फिर कुछ सोचते हुए, उस पत्थर को उठाकर उन सज्जन को पकड़ा देते हैं और फिर से अपनी बात कहते हुए, चलना शुरू कर देते हैं। शुरू में एक पल के लिये उन सज्जन को आश्चर्य होता है और वे सोचने लगते हैं कि संत ने अनावश्यक रूप से इतना बड़ा और भारी पत्थर क्यों उठा कर मुझे पकड़ा दिया? लेकिन कुछ ही मिनिटों में वे सज्जन एक बार फिर संत की रोचक बातों में खो जाते हैं और हाथ में पकड़े हुए भारी पत्थर को नज़रंदाज़ करते हुए आराम से उनके साथ चलने लगते हैं।


लगभग आधे-पौन घंटे बाद पत्थर का वजन उन सज्जन को परेशान करने लगता है और वे हाथ में हल्का-हल्का दर्द महसूस करना शुरू कर देते हैं। लेकिन संत की बात इतनी ज्ञानवर्धक और रोचक थी कि वे चुप रहते हुए, संत के साथ चलने को प्राथमिकता देते हैं। कुछ देर बाद जब उन सज्जन से दर्द सहना मुश्किल हो गया तब उन्होंने संत से आज्ञा लेकर उस पत्थर को ज़मीन पर रख दिया और गहरी साँस लेकर ख़ुद को रिलैक्स करने की कोशिश करने लगे।


कुछ पलों बाद संत ने उन सज्जन से कहा, ‘वत्स, क्या तुम पत्थर को उठा कर की गई यात्रा के अपने अनुभव साझा करोगे?’ वे सज्जन बोले, ‘गुरुजी, पत्थर उठाने के बाद मैं जल्द ही आपकी बातों में खो गया था। इसलिए मुझे एहसास ही नहीं था कि मेरे हाथ में भारी पत्थर है। लेकिन कुछ देर बाद जब मुझे हाथ में हल्का-हल्का दर्द होना शुरू हुआ तब मेरा ध्यान थोड़ा-थोड़ा पत्थर पर जाने लगा। लेकिन जैसे-जैसे दर्द बढ़ता गया मेरा ध्यान आप पर से कम होने लगा और पत्थर पर ज्यादा होने लगा। अंतिम कुछ पलों में तो मेरा पूरा ध्यान पत्थर पर आ गया और मैं उसके अलावा कुछ और सोच ही नहीं पा रहा था।’


उन सज्जन की बात पूर्ण होते ही संत ने उनसे अगला प्रश्न किया, ‘अब यह बताओ कि पत्थर को नीचे रखने के बाद तुम कैसा महसूस कर रहे हो?’ वे सज्जन तपाक से बोले, ‘पत्थर नीचे रखते ही मुझे बड़ी राहत महसूस हुई और साथ ही मैंने ख़ुशी को भी महसूस किया।’ उन सज्जन की बात सुनते ही संत मुस्कुराने लगे और बोले, ‘वत्स, आशा करता हूँ तुम्हें अपने प्रश्न याने ख़ुशी का रहस्य मिल गया होगा।’ इस पर वे सज्जन बोले, ‘गुरुजी, मैं कुछ समझा नहीं।’


संत बोले, ‘वत्स, जिस तरह पत्थर को थोड़ी देर हाथ में उठाने पर थोड़ा दर्द होता है; थोड़ी ज़्यादा देर उठाने पर थोड़ा ज़्यादा दर्द होता है। अर्थात् जैसे-जैसे हम पत्थर को उठाने का समय बढ़ाते जाते हैं, हमारा दर्द भी बढ़ता जाता है। ठीक उसी तरह दुखों के बोझ को हम जितने ज्यादा समय तक उठाए रखते हैं हम उतना ही अधिक निराश और दुखी रहने लगते हैं। इस आधार पर देखा जाए, तो अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम दुखों के बोझ को थोड़ी सी देर उठाए रखें या ज़िंदगी भर।


बात तो दोस्तों, संत की ज़बरदस्त है। अगर जीवन में हमारा लक्ष्य खुश और मस्त रहना है तो हमें अपने दुख रूपी पत्थर को उठाने से बचना सीखना होगा और अगर किसी वजह या गलती से कभी-कभार आपने उसे उठा भी लिया तो जल्दी से जल्दी नीचे रखना सीखना होगा। अन्यथा हम सुख-दुःख के उतार-चढ़ाव के बीच ही अपने जीवन को गँवाते रहेंगे। इसलिए दोस्तों, बिना एक पल भी गँवाए अपने अंदर झांकिये और अगर कोई भी दुख, परेशानी, नकारात्मक अनुभव रूपी पत्थर अंदर मिलता है तो उसे तुरंत बाहर निकाल फेंकिए और खुश रहिए।


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

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