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अच्छी संगत और सत्संग से बनाएँ जीवन बेहतर…

  • Writer: Nirmal Bhatnagar
    Nirmal Bhatnagar
  • Dec 13, 2024
  • 4 min read

Dec 13, 2024

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, बात कई साल पुरानी है, मृत्यु का आभास होने पर शहर के सबसे शातिर चोर ने अपने बच्चे को अपने पास बुलाया और बोला, ‘बेटा, ऐसा लगता है मैं अब अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुँच गया हूँ। इस दुनिया से जाने से पहले मैं तुम्हें नसीहत के तौर पर अपने जीवन का पूरा अनुभव दो सूत्रों के रूप में देना चाहता हूँ। पहला, अगर तुम्हें चोरी करनी हो तो कभी भी किसी गुरुद्वारे, धर्मशाला या धार्मिक स्थान पर मत जाना, इनसे दूर ही रहना। दूसरा, पकड़े जाने पर यह कभी स्वीकार मत करना कि चोरी तुमने की है, फिर चाहे वे कितनी भी सख्ती से पूछताछ क्यों ना करें।’ बेटे द्वारा जीवनभर इन सीखों का पालन करने का आश्वासन मिलते ही वह चोर मर गया।


पिता की मृत्यु के कुछ दिनों बाद बेटे ने पिता के बताये सूत्रों पर अमल करते हुए रोज रात को चोरी करना शुरू कर दिया। एक रात वह चोरी करने के उद्देश्य से एक घर में घुसा और अलमारियों के ताले तोड़ने लगा। इससे हुई आवाज़ से घरवाले जाग गए और वे शोर मचाने लगे। इस आवाज़ को उस रात गश्त पर निकले पुलिस दल ने सुन लिया और वे भी चोर को पकड़ने के लिए उस घर की ओर चल दिए। कुछ ही मिनटों में स्थिति ऐसी थी कि चोर चारों ओर से घिर चुका था। अब चोर जाए तो जाए किधर? लेकिन चोर ने हिम्मत हारने के स्थान पर बचने का प्रयास किया और किसी तरह उन लोगों के बीच से भाग निकला। काफ़ी देर तक भागने के बाद चोर को एक धर्मशाला नजर आई जिसमें एक संत भजन-कीर्तन कर रहे थे। वह वहाँ छुपने के विषय में सोच ही रहा था कि उसे अपने पिता की सीख याद आई कि ‘चोरी के वक्त कभी भी मंदिर, गुरुद्वारे या धर्मशाला में मत जाना।’ पिता की सीख याद कर वह आगे जाने का सोच ही रहा था कि उसे पीछा करते पुलिस दल की आवाज सुनाई आने लगी। मरता क्या ना करता, वह पिता की सीख को नजरंदाज कर धर्मशाला में घुस गया और सत्संगियों के बीच में बैठ गया। लेकिन पिता की सीख उसे अभी भी परेशान कर रही थी। उसने सोचा मैं अपने कानों में उँगलियों को डाल लेता हूँ, जिससे सत्संग के वचन मेरे कानों में नहीं पड़ेंगे। लेकिन दोस्तों, मन तो मन ही होता है, एकदम अड़ियल घोड़े की माफ़िक़ यह वहीं जाता है, जहाँ जाने से इसे रोका जाता है। कानों को बंद करने के बाद भी चोर के कान में सत्संग के कुछ शब्द पड़ ही गए, ‘देवी देवताओं की परछाई नहीं होती।’ उस चोर ने सोचा की परछाई हो या ना हो इससे मुझे क्या लेना देना?


अभी वह इन बातों पर विचार कर ही रहा था कि पुलिस और घरवाले वहाँ पहुँच गए और उन्होंने चोर को पहचान कर पकड़ा और थाने ले गए और उससे पूछताछ शुरू की। लेकिन चोर बड़ा आज्ञाकारी बेटा था उसे पिता की दूसरी सीख याद थी कि कुछ भी हो जाये पकड़े जाने पर चोरी मत क़बूलना। उसने ठीक वैसा ही किया और ढेरों डंडे खाने के बाद भी चोरी करना नहीं कबूला। उस समय यह नियम था कि जब तक मुजरिम, अपराध न स्वीकार कर ले, उसे सजा नहीं दी जा सकती। अंत में बुद्धिजीवियों और वरिष्ठ लोगों की सलाह पर पुलिसवालों ने एक बहुरूपिये की सहायता लेने का निर्णय लिया। उस बहुरूपिये ने पुलिसवालों को आश्वस्त किया कि वह चोर से सच्चाई उगलवा लेगी, लेकिन इसके लिए उसे देवी का रूप धरना होगा क्योंकि वह जानती थी कि चोर देवी का बहुत बड़ा भक्त है। पुलिसवालों ने बहुरूपिये को दो नक़ली बाहें लगाने में मदद करी और अपने एक हाथ में हथियार, दूसरे में मशाल, तीसरे में चक्र और चौथे में त्रिशूल पकड़ा और फिर अंत में सवारी के लिए एक नक़ली शेर का इंतज़ाम किया। पुलिसवालों की सहायता से रात्रि के घुप्प अँधेरे में वह माता का रूप धरके जेल के दरवाजे पर पहुँची, जहाँ योजनानुसार उसके देखते ही जेल के ताले टूट गए।


मुश्किल समय में सामान्यतः हर इंसान अपने इष्टदेव को याद करता है, ऐसा ही वह चोर भी कर रहा था। अचानक ताला टूटने की आवाज़ से उसका ध्यान दरवाजे की ओर गया जहाँ उसने देवी माँ का रूप धरी महिला को देखा, जिसके चमत्कार से जेल के दरवाजे भी अपने आप खुल गए थे। चोर ने तुरंत माँ को दण्डवत प्रणाम किया। देवी माँ उसे आशीर्वाद देते हुए बोली, ‘वत्स, तूने मुझे सच्चे दिल से याद किया इसलिए मैं तेरी सहायता के लिए दौड़ी चली आई। अच्छा किया जो तूने अपना अपराध स्वीकार नहीं किया। पर तू मुझसे सब कुछ सच कह सकता है। तेरे मुँह से सच सुनते ही मैं तुझे फौरन आजाद करवा दूंगी।’


देवी भक्त चोर, माँ के शब्द सुन बड़ा खुश था और मन ही मन सब कुछ सच बोलने का सोच ही रहा था कि उसकी नजर देवी माँ की परछाई पर गई। जिसे देख चोर को सत्संग का वचन याद आ गया, ‘देवी-देवताओं की परछाई नहीं होती।’ वचन याद आते ही चोर को एहसास हुआ कि मेरे सामने देवी नहीं खड़ी है, यह तो कोई छल है; पुलिसवालों के साथ मिलकर ये मेरे साथ कोई धोखा कर रहे है। यह विचार आते ही उसने सच बोलने का विचार त्यागा और दोनों हाथ जोड़ते हुए बोला, ‘मां! मैंने कोई चोरी नहीं की है। तुम ही बताओ, अगर मैंने चोरी की होती तो क्या आपको पता नहीं चलता। जेल के बाहर बैठे हुए पहरेदार चोर और ठगनी की बातचीत ध्यान से सुन कर नोट कर रहे थे, इस बातचीत से उनको और ठगनी को विश्वास हो गया कि यह चोर नहीं है। उन्होंने तुरंत यह बात न्यायाधीश को बताई और चोर को जेल से आजाद करवा दिया।


सोच कर देखिए दोस्तों, अगर एक दिन का सत्संग उस चोर को जेल से आजाद करवा सकता है, तो अगर उसने रोज सत्संग किया होता तो उसका परिणाम क्या होता? निश्चित तौर पर वह चोर जीवन के फालतू प्रपंचों से आजाद होकर अच्छा जीवन जी रहा होता। सही कहा ना मैंने दोस्तों? इसलिए ही समाज में हमेशा अच्छी संगत रखने की सीख दी जाती है और हमें बचपन से ही सिखाया जाता है कि ‘जैसी संगत, वैसी रंगत!’ तो आइए दोस्तों आज से अच्छी संगत और सत्संग का लाभ लेते हैं और अपने जीवन को बेहतर बनाते हैं।


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

 
 
 

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