Feb 8, 2024
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, मेरी नज़र में शारीरिक अपंग होने से कई गुना ज़्यादा बुरा मानसिक तौर पर अपंग होना है। जी हाँ दोस्तों, मानसिक तौर पर अपंग व्यक्ति जीवन में सब कुछ होने के बाद भी सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी अपरिपक्व सोच के कारण परेशान और दुखी रहता है। अपनी बात को मैं आपको एक कहानी से समझाने का प्रयास करता हूँ।
बात कई साल पुरानी है, गाँव के बाहरी इलाक़े में रामसुख नाम के एक दुखी सेठ रहा करते थे। जब भी कोई उनसे उनके दुख का कारण पूछता था तो वे कहते थे, ‘वैसे तो ईश्वर का दिया सब कुछ है मेरे पास लंबा-चौड़ा घर, घोड़ा-गाड़ी, नौकर-चाकर, धन-दौलत… सब कुछ… बस चैन नहीं है। इसीलिए रात को नींद नहीं आती है। कभी-कभार आँख लग भी जाए, तो बड़े भयंकर सपने आते है; बड़े अजीब-अजीब से ख़्याल आते हैं। हमेशा बेचैनी बनी रहती है। पचासों डॉक्टर को दिखा चुका हूँ, ढेर सारी गोलियाँ खा चुका हूँ। लेकिन ज़रा सा भी फ़ायदा नहीं हुआ, उल्टा दिन दूना-रात चौगुना रोग बढ़ता ही जा रहा है।’
सेठ की स्थिति याने उनकी बेचैनी का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि वे इतनी सारी बातें एक ही साँस में कह ज़ाया करते थे। एक दिन उस गाँव में एक बहुत ही पहुँचे हुए साधु का आना हुआ। उनके बारे में प्रसिद्ध था कि वे अपनी शक्तियों और सुझावों के द्वारा लोगों के दुख-दर्द चुटकियों में दूर कर दिया करते थे। जैसे ही यह बात सेठ को पता चली वे तुरंत उनके पास गये और अपनी परेशानी उन्हें भी एक ही साँस में कह सुनाई और फिर अंत में बोले, ‘महात्मन, अब आप ही मेरी अंतिम आस हैं। जैसे भी हो आप कृपया मेरा संकट; मेरा कष्ट दूर भगाएँ।’
सेठ की बात सुनते ही महात्मा जी गंभीर स्वर में बोले, ‘सेठ तुम अपंग हो, इसीलिए परेशान हो।’ महात्मा की बात ने सेठ के मन में उलझन पैदा कर दी। वे आश्चर्य मिश्रित चिंतित स्वर में बोले, ‘महात्मन, मेरे हाथ-पैर समेत शरीर के सारे अंग सही-सलामत हैं। ऐसे में आप मुझे अपंग कैसे कह सकते हैं?’ सेठ की बात सुनते ही महात्मा मुस्कुराए और बोले, ‘अपंग सिर्फ़ वह नहीं होता जिसके हाथ-पैर या कोई शारीरिक अंग नहीं होता। अपंग तो वह भी होता है जो मानसिक या दिमाग़ी तौर पर ख़ुद को मजबूर, दूसरों पर निर्भर और आलसी बना लेता है। मेरी नज़र में तुम अपंग इसलिए थे क्योंकि हाथ-पैर होने के बाद भी तुम उनका इस्तेमाल नहीं कर रहे थे। अगर मेरी बात से सहमत ना हो, तो तुम अपनी दिनचर्या को ध्यान से देख लो। हर छोटे से छोटे कार्य के लिए तुम अपने अधीनस्थों पर निर्भर हो।’ इतना कहकर साधु एक पल के लिये रुके और सेठ की आँखों से आँखें मिलाकर, मुस्कुराते हुए बोले, ‘सेठ, अपंग वह नहीं होता जिसके हाथ-पैर नहीं होते। वास्तव में अपंग तो वह होता है जो हाथ-पैर होते हुए भी उनका इस्तेमाल नहीं करता।’
हर छोटे-बड़े काम के लिए नौकर पर निर्भर रहने वाले सेठ के पास महात्मा की बातों का कोई जवाब नहीं था। वे सिर झुकाए यूँ ही बैठे थे। महात्मा जी भी कहाँ रुकने वाले थे, उन्होंने सेठ की ओर ध्यान दिये बिना ही बात आगे बढ़ाई और बोला, ‘सेठ, तुम्हीं ही बताओ, अपने शरीर से तुम कितना काम करते हो? वाक़ई अगर तुम इस बीमारी से छुटकारा पाना चाहते हो तो इस शरीर को इतना अधिक काम में लो कि यह रात तक थक के चूर हो जाए।’ इतना कहकर महात्मा जी वहाँ से चले गए और सेठ ने उसी पल से उनकी सलाह पर अमल करना शुरू कर दिया। उस रात को सेठ को इतनी गहरी नींद आई कि वह चकित रह गया।
दोस्तों, अब अगर आप एक बार फिर कहानी पर नज़र दौड़ायेंगे तो पाएँगे कि सेठ की समस्या शारीरिक नहीं मानसिक थी क्योंकि दौलत को लेकर बनाई गई ग़लत धारणाओं के कारण उसने अपनी असली दौलत याने शरीर को काम में लेना बंद कर दिया था। इसी तरह अक्सर दोस्तों हम अपने दैनिक जीवन में सामान्य सी चीजों के लिए ग़लत सोच का निर्माण कर लेते हैं और फिर ग़लत प्राथमिकताओं के आधार पर जीवन जीते हुए परेशान और दुखी रहते हैं। इसीलिए दोस्तों लेख की शुरुआत में मैंने कहा था, ‘शारीरिक अपंग होने से कई गुना ज़्यादा बुरा मानसिक तौर पर अपंग होना है।’ दोस्तों, अगर आप मानसिक अपंगता से बचना चाहते हैं तो आज ही सबसे पहले परिवार, संबंधों, जीवन मूल्यों, व्यवसाय, दौलत आदि संबंधी अपनी मानसिक ग़ुलामियों याने धारणाओं पर पुनर्विचार करें और अनावश्यक बंधनों से आज़ाद हो, खुलकर जीवन जीना शुरू करें।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
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