Sep 22, 2024
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, सामाजिक तौर पर हमारी ज़्यादातर समस्याओं की जड़ में संवेदना, सहानुभूति और समानुभूति का कम या ना होना है। जी हाँ दोस्तों, आप स्वयं सोच कर देखिए अगर हम दूसरों के दुख-दर्द, समस्याओं, परेशानियों और दिक़्क़तों को समझने लगें तो मेरी नज़र में ज़्यादातर दिक़्क़तें तो अपने आप ही ख़त्म हो जाएगी। अपनी बात को मैं आपको एक कहानी के माध्यम से समझाने का प्रयास करता हूँ।
बात कई साल पुरानी है, एक दिन एक डाकिया याने पोस्टमैन एक मनीआर्डर लेकर एक बुजुर्ग महिला के पास पहुँचा और अपनी साइकिल से उतरता हुआ थोड़ी ऊँची आवक में बोला, ‘लो अम्मा, आपके बेटे का मनीआर्डर आ गया है।’ डाकिये की यह बात सुनते ही उस बुद्धि अम्मा की आँखों में चमक आ गई और वह अपने पुराने चश्में को साड़ी के पल्लू से साफ़ करते हुए, बड़े उत्साह से बोली, ‘बेटा, पैसे तो ठीक है, लेकिन पहले ज़रा मेरी बात मेरे बेटे से तो करवा दो।’ अम्मा की बात सुनते ही डाकिया उसे थोड़ा टालने का प्रयास करते हुए बोला, ‘अरे अम्मा, इतनी फ़ुरसत कहाँ रहती है कि हर बार मैं तेरी बात बेटे से करवा पाऊँ।’
लेकिन बूढ़ी अम्मा भी कहाँ मानने वाली थी। वह भी तो इस दिन का इंतज़ार पूरे माह किया करती थी। वे डाकिये को प्यार से बातों में उलझाकर मनाने का प्रयास करते हुए बोली, ‘मान जा ना बेटा, एक तू ही तो है जिसकी वजह से मैं अपने बेटे से बात कर पाती हूँ।’ इतना कहकर अम्मा एक पल के लिये रुकी फिर बोली, ‘बस थोड़ी सी देर की तो बात है, बेटा।’ इस पर डाकिया बोला, ‘अम्मा, आप मुझसे हर बार बात करवाने की ज़िद मत किया करो। तुम्हें पता है बात करने के पैसे लगते हैं।’ इतना कहकर डाकिये ने एक नंबर पर फ़ोन किया और मोबाइल अम्मा के हाथों में थमा दिया।
अम्मा ने बड़े प्यार से अपने बेटे से बात करी, उसका हाल-चाल पूछा और आशीर्वाद देकर एक ही मिनिट में बात पूर्ण कर ली। अब उनके झुर्रीदार चेहरे पर संतुष्टि के भाव की एक बड़ी सी मुस्कुराहट थी। उन्होंने आशीर्वचनों के साथ मोबाइल को डाकिये को लौटाया और उसके हाथ से रुपये लेकर गिनने लगी। तभी डाकिया बोला, ‘अम्मा पूरे हज़ार रुपये हैं, सौ-सौ के दस नोट।’ अम्मा ने नोट को गिनते हुए नज़र उठाई और डाकिये को रुकने का इशारा किया। डाकिया बोला, "अब क्या हुआ अम्मा?’ अम्मा ने बिना कुछ कहे डाकिये की ओर सौ का नोट बढ़ा दिया। डाकिया आश्चर्य से बोला, ‘यह किसलिए अम्मा।’ अम्मा बड़े लाड़ के साथ बोली, ‘हर महीने रुपए पहुँचाने के साथ-साथ तुम मेरे बेटे से मेरी बात भी करवा देते हो, कुछ तो खर्चा होता होगा ना।’ मुस्कुराते हुए डाकिया बोला, ‘अरे नहीं अम्मा यह सब रहने दो।’ डाकिया लाख मना करता रहा लेकिन अम्मा भी कहाँ मानने वाली थी, उन्होंने ज़बरदस्ती उसकी मुट्ठी में सौ रुपये थमा दिए और वापस अपने घर में चली गई।
डाकिया मुस्कुराता हुआ वहाँ से कुछ कदम ही आगे चला था कि पीछे से किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा। डाकिये ने पीछे मुड़कर देखा तो वह यह देख कर हैरान रह गया कि पीछे मोबाईल की दुकान चलाने वाले राजू भैया को अपने समक्ष पाया। डाकिया आश्चर्य के साथ बोला, ‘राजू भैया, इस समय तो आप दुकान पर होते हो ना? आज इधर कैसे?’’ राजू भैया बोले, ‘मैं यहाँ किसी से मिलने आया था। लौटते वक़्त तुम्हें यहाँ देखकर रुक गया। एक बात बताओ, तुम हर महीने इन अम्मा को अपनी जेब से रुपये देते हो फिर मुझे पैसे देकर इनका बेटा बनकर बात करने के लिए क्यों कहते हो।’ डाकिया गंभीर स्वर में बोला, ‘मैं रुपये इन्हें नहीं, अपनी अम्मा को देता हूँ।’ राजू भैया बोले, ‘मैं समझा नहीं।’ डाकिया बोला, ‘भैया, इनका बेटा बाहर नौकरी करता था और और हर महीने अपनी अम्मा के लिए हजार रुपए का मनी ऑर्डर भेजता था। लेकिन एक दिन मनी ऑर्डर की जगह इनके बेटे के एक दोस्त की चिट्ठी अम्मा के नाम आई थी। उसमें लिखा था कि संक्रमण की वजह से उनके बेटे की जान चली गई! अब वह नहीं रहा। हर महीने चंद रुपयों का इंतजार और बेटे की कुशलता की उम्मीद करने वाली इस अम्मा को यह बताने की मेरी हिम्मत नहीं हुई! कोरोना में मैंने अपनी माँ को खो दिया, पर हर महीने मनी ऑर्डर के बहाने इनके पास आता हूँ तो, अपनी माँ की छवि इनमें देखता हूँ।’ इतना कहते हुए उस डाकिये की आँखें भर आई और वह अपनी साइकिल उठाकर डाक बाँटने के लिए आगे बढ़ गया।
दोस्तों, कहने की ज़रूरत नहीं है कि अजनबी अम्मा के लिए डाकिये का आत्मिक स्नेह देख राजू भैया निःशब्द रह गये थे। मुझे तो ऐसा लगता है उस वक़्त उनके भीतर तो एक ही बात चल रही होगी, ‘अगर यह भाव हर इंसान के भीतर पैदा हो जाए तो यह दुनिया कितनी हसीन हो जाएगी। इसीलिए तो दोस्तों, सहानुभूति व समानुभूति और लोगों की मदद करने की इच्छा को इंसान के दो सबसे महत्वपूर्ण गुण बताए गए हैं। तो आइए, आज से इन गुणों के साथ याने अपने जीवन को जीते हैं और इस दुनिया को बेहतरीन बनाकर इन पक्तियों को चरितार्थ करते हैं, ‘अपने लिए जिये तो क्या जिये, तू जी ऐ दिल जमाने के लिए…’
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
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