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अहंकार से नहीं, आभार से करें कार्य…

  • Writer: Nirmal Bhatnagar
    Nirmal Bhatnagar
  • May 10
  • 3 min read

May 10, 2025

फिर भी ज़िंदगी हसीन है...

दोस्तों, हाल ही में हुई एक पब्लिक इवेंट के पश्चात एक सज्जन मेरे पास आए और अपने समाजसेवा के कार्यों को बताने के बाद बड़े गर्व या यूँ कहूँ कि अहंकार के साथ कहने लगे कि आज वे अपने शहर में सबसे ज्यादा सामाजिक कार्य करवा रहे हैं। मैंने मुस्कुरा कर उनका अभिवादन किया और सोचने लगा कि “क्या इस तरह की तुलना उचित है?” क्योंकि हम सभी लोग अपनी क्षमता के अनुसार जीवन में कई बार अच्छे कार्य करते हैं। जैसे, किसी को भोजन करवाना, जरूरतमंद लोगों की मदद करना, सामाजिक या धार्मिक आयोजन करना या कोई नेक काम करना आदि। और जब यह कार्य अपनी क्षमता के अनुसार किया गया है तो फिर इसमें तुलना कैसी? वैसे भी जब नेक कार्यों के पीछे अगर हमारे मन में यह भाव आ जाता है कि “मैंने किया”, तो यकीन मानियेगा, वहीं से हमारे पतन की कहानी शुरू हो जाती है। चलिए, इसी बात को मैं आपको एक कहानी से समझाने का प्रयास करता हूँ-


बात कई साल पुरानी है गाँव के बाहरी इलाक़े में रहने वाले सेठ जी ने हर माह की तरह आज भी भंडारे का आयोजन करवाया था। सालों से सेवा भाव से हर माह किए जाने वाले इस भंडारे के कारण बीतते समय के साथ सेठ के मन में यह भाव आ गया था कि सारा कार्य वो कर रहे हैं। वहाँ मौजूद संत तत्काल सेठ के इस भाव को पहचान गए। उन्होंने सेठ को समझाते हुए कहा कि “बिना ईश्वर की कृपा के हम कुछ भी नहीं कर सकते।” यह बात कोई साधारण वाक्य नहीं, बल्कि एक गहन जीवन-दर्शन था। उन्होंने सेठ जी को समझाया कि जब कोई अच्छा कार्य हमारे माध्यम से होता है, तो यह हमारी महानता नहीं, बल्कि ईश्वर की कृपा होती है। हर अन्न के दाने पर खाने वाले का नाम लिखा होता है, और यह उसकी मर्जी है कि वह किसके हाथ से यह कर्म करवा रहा है।


लेकिन सेठ जी का अहंकार इतना अधिक था कि वे इस बात को हज़म ही नहीं कर पा रहे थे। वे सोच रहे थे कि जब सारा सामान मैं लाया, सारा भोजन मैंने बनवाया तो इसमें किसी और की मर्जी कैसे हो सकती है? अपनी सोच को सिद्ध करने के लिए सेठ ने हाथ में भोजन लिया और संत से बोले, “अगर ऐसा है तो अब कोई भी मुझे इस खाने को खाने से रोक कर दिखाओ। जब यह भोजन मैंने लिया है, तो मैं भी तो देखूँ कि कौन मुझे रोक सकता है?”


ईश्वर तो ईश्वर ठहरे उन्होंने एक ही क्षण में सेठ को सिखा दिया कि "करने वाला" वास्तव में कोई और है। जैसे ही उन्होंने पहला ग्रास हाथ में लिया, वैसे ही बेटे की दुर्घटना की सूचना आई और उन्हें भोजन अधूरा छोड़कर भागना पड़ा। अस्पताल पहुंचने पर उन्होंने वही भोजन अपनी पत्नी के पास रखा पाया। भूख से व्याकुल सेठ ने पत्नी से भोजन के विषय में पूछा तो वो बोली, “वैसे तो यह भोजन में अपने लिए लाई थी। लेकिन शायद ईश्वर चाहते हैं कि यह आज आपको खाने को मिले।” पत्नी की बात सुनते ही सेठ जी को समझ आया कि वास्तव में भोजन किसी के हाथ से किसी और के लिए आता है, यह सब उसकी लीला है।


दोस्तों, संत की बात सौ प्रतिशत सही थी और वही जीवन का सच्चा मार्ग भी है। जब भी कोई अच्छा कार्य हमारे जीवन में हो, तो यह मत सोचो कि "मैंने किया", बल्कि यह मानो कि रामजी ने मुझसे करवा लिया। इस भावना से किया गया हर कार्य अहंकार से मुक्त होता है और सेवा में बदल जाता है। वैसे भी रामजी के सामीप्य में होना ही हमारे जीवन की सबसे बड़ी कुंजी है। दूसरे शब्दों में कहूँ तो स्वयं को कर्म का कर्ता न मानना, आपको ईश्वर के समीप ले जाता है। याद रखियेगा, जब "मैं" मिट जाता है, तभी सच्चे अर्थों में "राम" प्रकट होते हैं।


तो मित्रों, आज से ही इस भावना को अपने जीवन में उतारिए। अपने हर अच्छे कार्य को ईश्वर को समर्पित कीजिए। आप कुछ नहीं कर रहे, ईश्वर करवा रहे हैं – आप तो बस निमित्त मात्र हैं। और इस बात को जिसने जान लिया, समझो उसने जीवन की सबसे बड़ी साधना पा ली। यही विनम्रता, यही आभार, और यही सच्ची भक्ति है।


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

 
 
 

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