June 11, 2024
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

आकांक्षा और अपेक्षा दो ऐसे भाव हैं, जिनका ज़्यादा होना अक्सर असंतोष का भाव पैदा कर आपके अंतर्मन को निराशा और नकारात्मकता से भर देता है। अपनी बात को मैं आपको एक क़िस्से से समझाने का प्रयास करता हूँ। बात कई साल पुरानी है, गाँव के कंजूस सेठ ने एक बार दो ब्राह्मणों को भोजन करने के लिए आमंत्रित किया।
अगले दिन जब वे दोनों ब्राह्मण सेठ के यहाँ पहुँचे तो सेठ ने दोनों का बहुत अच्छे से सत्कार किया। दोनों को बहुत ही स्वादिष्ट भोजन कराया और उसके पश्चात दोनों को भेंट देकर, सम्मान पूर्वक विदा किया। सेठ के यहाँ से लौटते वक़्त दोनों ब्राह्मणों में से एक ब्राह्मण बहुत दुखी और निराश था, जबकि दूसरा ब्राह्मण एकदम खुश और मस्त। दोनों के मूड का अंतर साफ़ दिखा रहा था कि दोनों में से एक संतुष्ट या संतोषी है, जबकि दूसरा असंतुष्ट या असंतोष से भरा।
रास्ते में एक बुजुर्ग व्यक्ति का ध्यान दोनों ब्राह्मणों पर गया। वे दोनों के मूड में इतना अंतर देख आश्चर्यचकित थे। उन्होंने दोनों ब्राह्मणों को रोका और उनसे पूछा, ‘ब्राह्मण देवता मैं आप दोनों के मूड में इतना अंतर देख अचंभित हूँ। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि आप में से एक इतना खुश और दूसरा इतना अधिक दुखी क्यों है?, आप कहाँ से आ रहे हैं और अगर आप बुरा ना मानें तो क्या मैं आपसे इसकी वजह पूछ सकता हूँ?’ दुखी, नाखुश और असंतुष्ट ब्राह्मण बोला, ‘महाराज, आज हमें नगर सेठ ने भोजन पर बुलाया था। हम दोनों वहीं से आ रहे हैं।’ बुजुर्ग व्यक्ति बात आगे बढ़ाते हुए बोला, ‘ओहो! मुझे लगता है शायद सेठ ने आपकी ख़ातिरदारी अच्छे से नहीं करी…’ दुखी ब्राह्मण बीच में ही बात काटता हुआ बोला, ‘नहीं… नहीं… ऐसा नहीं है। उन्होंने हमारी ख़ातिरदारी बहुत अच्छे से करी थी।’ ‘फिर आप दुखी क्यों हैं?’ बुजुर्ग व्यक्ति ने अगला प्रश्न किया, ‘ब्राह्मण हिचकता हुआ बोला, ‘वो… वो क्या है कि मैं सेठ के यहाँ भोजन के लिए जाते वक़्त सोच रहा था कि इतना बड़ा सेठ है, भोजन के बाद दक्षिणा में कम से कम १०१ रुपये तो देगा, लेकिन सेठ ने दक्षिणा में २१ रुपये देकर ही टरका दिया।’
दुखी ब्राह्मण की बात पूर्ण होते ही बुजुर्ग व्यक्ति सुखी ब्राह्मण व्यक्ति की ओर देखता हुआ बोला, ‘ब्राह्मण देवता आप तो बड़े खुश लग रहे हैं, लगता है सेठ ने आपको दक्षिणा में १०१ रुपये दिये हैं।’ खुश और सुखी ब्राह्मण बोला, ‘नहीं महाराज, मुझे भी सेठ ने दक्षिणा में २१ रुपये ही दिये हैं।’ ‘फिर आप इतने खुश क्यों हैं?’, बुजुर्ग व्यक्ति ने पूछा। इस पर खुश और संतुष्ट ब्राह्मण बोला, ‘महाराज मैं पहले से ही जानता था कि सेठ बड़ा कंजूस है, ११ रुपये से ज़्यादा दक्षिणा नहीं देगा। लेकिन जब उसने २१ रुपये दक्षिणा दी तो मन एकदम संतुष्ट और प्रसन्न हो गया।’
दोस्तों, ऐसा ही कुछ हाल हमारे अंतर्मन का भी है। यह भी लोगों, रिश्तेदारों और परिवार से विभिन्न परिस्थितियों में अपेक्षायें लगाए रखता है। जब यह अपेक्षाएँ बड़ी और अधिक होती हैं और सामने वाला इन्हें किसी कारण से पूरा नहीं कर पाता है, तो यह दुखी हो जाता है। इसके विपरीत जब यह इच्छाएँ और अपेक्षायें कम रखता है और सामने वाला उन्हें पूरी कर देता है, तो यह खुश हो जाता है।
दूसरे शब्दों में कहा जाये तो इस संसार में घटनायें समान रूप से घटती हैं, पर कोई उन घटनाओं से सुख प्राप्त करता है, तो कोई दुखी होता है। इस आधार पर कहा जाए तो घटनाओं का हमारे सुख और दुख से कोई लेना देना नहीं है। सुख और दुख तो केवल हमारे मन की स्थिति पर निर्भर करते हैं। मन की कामना पूरी हो जाये तो सुख और अगर पूरी ना हो तो दुख। अर्थात् हम जो भी करते या सोचते हैं या दिल से जिसकी तमन्ना करते हैं, उससे हमें दो तरह के परिणाम मिल सकते हैं। पहला, अनुकूल और दूसरा प्रतिकूल; परिणाम अनुकूल होने पर हम संतुष्ट हो, चिंता रहित हो जाते हैं और फिर आनंदित रहते हैं, जबकि विपरीत परिणाम होने पर हम विचलित हो जाते हैं। लेकिन दोस्तों अगर आपका लक्ष्य हर हाल में आनंदित रहना है तो आपको कामना रहित जीवन जीना सीखना होगा।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
Komentar