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आपके संस्कार और दर्शन बच्चों के जीवन को दिशा देते हैं…

Writer's picture: Nirmal BhatnagarNirmal Bhatnagar

Sep 24, 2024

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…


दोस्तों, यक़ीन मानियेगा आपका व्यवहार, आपके संस्कार और आपका जीवन दर्शन ही आपके बच्चों को संस्कारी बनाता है; इस जीवन के प्रति उनके नज़रिए को तय करता है। अपनी बात को मैं आपको वर्ष 1943 में 22 वर्षीय डॉ आर एच कुलकर्णी के साथ घटी एक घटना से समझाने का प्रयास करता हूँ। हुबली के रहने वाले डॉ कुलकर्णी की नौकरी महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा के पास स्थित चांदगढ़ गांव के चिकित्सा केंद्र में लगी। एक दिन रात को तेज बारिश और तूफ़ान के बीच कुछ लोग उनके घर पहुँचे और ज़ोर-ज़ोर से उनके घर का दरवाज़ा पीटने लगे। डॉ कुलकर्णी, जो उस वक़्त किताब पढ़ रहे थे, अचानक हुए इस घटनाक्रम से थोड़े घबरा गये।


हिम्मत करके डॉ कुलकर्णी ने जब दरवाज़ा खोला तो पाया कि दरवाज़े के बाहर ऊनी कपड़े पहने चार लठैत खड़े हैं। डॉ कुलकर्णी को देखते ही एक लठैत बोला, ‘अपनी अटैची उठाइए और तत्काल हमारे साथ चलिए।’ डॉ कुलकर्णी ने मन ही मन सोचा कि इन लठैतों से भिड़ने या इनका विरोध करने से कोई फ़ायदा नहीं होगा। इसलिए उन्होंने चुपचाप अपना बैग उठाया और उन लठैतों के साथ हो लिये।


तेज बारिश और आंधी के बीच लगभग डेढ़ घंटे की यात्रा पूर्ण कर उनकी गाड़ी एक कच्चे से मकान के बाहर रुकी और लठैत उन्हें एक अंधेरे से कमरे में ले गये, जहाँ एक लालटेन जल रही थी और उस कमरे में लगी खाट पर एक गर्भवती महिला लेटी हुई थी और उसके पास एक वृद्ध महिला बैठी हुई थी। प्रसव पीढ़ा से कराहती महिला को देख डॉ कुलकर्णी अंदर तक हिल गए। वे समझ नहीं पा रहे थे कि क्या किया जाये। तभी उन्हें एक लठैत द्वारा बताया गया कि उन्हें उस युवती का प्रसव करवाने के लिए लाया गया है।


हालाँकि डॉ कुलकर्णी ने इसके पहले कभी प्रसव नहीं करवाया था, लेकिन उस लड़की को देख उनका दिल पिघल गया और उन्होंने उस तूफ़ानी रात में महिला की मदद करने का निर्णय लिया। सबसे पहले डॉ कुलकर्णी ने उस युवती से पूछा तुम कौन हो और यहाँ कैसे हो? इस पर दर्द भरे स्वर में वह युवती बोली, ‘डॉ साहब मैं यहाँ के बड़े ज़मींदार की बेटी हूँ। हमारे गाँव में हाईस्कूल नहीं था इसलिए पिता ने पढ़ने के लिए शहर भेजा था। वहाँ मुझे एक लड़के से प्यार हो गया। इस दौरान… मैं गर्भवती हो गई। जब मुझे इस बात का पता चला तो मैंने तुरंत ही उस लड़के को बताया। वह यह बात सुनते ही भाग गया। जब तक मैं यह बात अपने माता-पिता को बता पाती, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। इसलिए पिता ने मुझे इस सुनसान स्थान पर भेज दिया ताकि इस बात का पता किसी को ना चल सके और वे बदनामी से बच सकें।’ इसके बाद वह एक पल के लिये चुप हुई फिर बोली, ‘डॉक्टर साहब, मैं जीना नहीं चाहती।‘ इतना कहते ही वह लड़की जोर-जोर से रोने लगी।


डॉ कुलकर्णी ने पहले प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा, फिर प्रसव करवाने की तैयारी में जुट गये। कुछ देर बाद डॉ कुलकर्णी की मदद से उस युवती ने एक कन्या को जन्म दिया, लेकिन जन्म लेने के बाद वह कन्या रोई नहीं। जब यह बात उस युवती को पता चली तो वह बोली, ‘बेटी है ना, मरने दो उसे, वरना मेरी ही तरह उसे भी दुर्भाग्यपूर्ण जीवन जीना पड़ेगा।’ इतना सुनने के बाद भी डॉ कुलकर्णी प्रयास करते रहे और जल्द ही उसे बचाने में सफल हो गये। प्रसूति कार्य पूर्ण होने के बाद डॉ कुलकर्णी जब बाहर आये तो उन्हें फ़ीस बतौर सौ रुपये दिये गये। जो उनकी तनख़्वाह पचहत्तर रू प्रति माह से भी ज़्यादा थे।


फ़ीस लेने के बाद डॉ कुलकर्णी अपना बैग लेने के लिए अंदर कमरे में गये और वह सौ रुपये उस युवती के हाथ में रखते हुए बोले, ‘सुख-दुख इंसान के हाथ में नहीं होते, बहन, लेकिन सब कुछ भूलकर तुम अपना और इस नन्ही जान का खयाल रखो। जब सफर करने के काबिल हो जाओ तो पुणे के नर्सिंग कॉलेज जाना और वहाँ आपटे नाम के मेरे मित्र से मिलना और कहना कि डॉक्टर आर. एच. कुलकर्णी ने भेजा है। वे ज़रूर तुम्हारी सहायता करेंगे। इसे एक भाई की विनती समझना। मैं अभी इससे अधिक तुम्हारे लिए कुछ नहीं कर पाऊँगा।’ इतना कहकर उन्होंने उसके सिर पर हाथ रखा और वहाँ से चले गए।


इस घटना के कुछ वर्षों बाद डॉ कुलकर्णी ने स्त्री विशेषज्ञ के रूप में विशेष प्रावीण्य प्राप्त किया और समाज सेवा में लग गये कई वर्षों बाद डॉ कुलकर्णी एक मेडिकल कॉन्फ़्रेंस में भाग लेने औरंगाबाद गये, जहाँ उन्हें बेहद उत्साहित डॉ चंद्रा के वक्तव्य ने बहुत प्रभावित करा। इस कार्यक्रम के पश्चात डॉ कुलकर्णी को किसी ने उनका नाम लेकर पुकारा, जिसे डॉ चंद्रा ने सुन लिया। वे लगभग दौड़ते हुए उनके पास पहुँची और बोली, ‘सर क्या आप कभी चांदगढ़ में रहे हैं?’ डॉ कुलकर्णी ने ‘हाँ’ में सर हिलाते हुए कहा, ‘हाँ, लेकिन ये बरसों पहले की बात है।’ इतना सुनते डॉ चंद्रा का चेहरा खिल गया और वो बोली, ‘सर! फिर तो आपको मेरे साथ रात्रि भोजन के लिए मेरे घर चलना पड़ेगा।’ डॉ कुलकर्णी ने उसके वक्तव्य की तारीफ़ करते हुए, उसे व्यस्तता के बारे में बताते हुए मना कर दिया। इस पर डॉ चंद्रा हाथ जोड़ते हुए बड़े प्यार से बोली, ‘सर, आप सिर्फ़ कुछ क्षणों के लिए मेरे घर चलें, मैं जीवन भर आपका एहसान मानूँगी।’


डॉ कुलकर्णी इस बार डॉ चंद्रा को मना नहीं कर पाये और उसके साथ उसके घर चले गये। घर पहुँचते ही डॉ चंद्रा ने अपनी माँ को आवाज़ देकर बुलाते हुए कहा, ‘माँ, देखो आज हमारे घर कौन आया है।’ बेटी की आवाज़ सुन माँ बाहर आई और डॉ कुलकर्णी को देखते ही उनकी आँखें अश्रु से भर गई। किसी तरह उन्होंने ख़ुद को सम्भाला और डॉ कुलकर्णी के पैरों में गिर गई। अप्रत्याक्षित प्रतिक्रिया देख डॉ कुलकर्णी घबरा गये। तभी उस महिला ने पुरानी घटना याद दिलाते हुए कहा, ‘डॉ साहब में वही युवती हूँ, जिसका आपने चांदगढ़ में प्रसव करवाया था और आपके कहने पर मैं पुणे में आपके मित्र के पास गई और उन्होंने मेरी मदद कर मुझे नर्स बनाया। बाद में मैंने अपनी बेटी को खूब पढ़ाया और आपको ही आदर्श मान इसे स्त्री विशेषज्ञ बनाया। मेरी बेटी चंद्रा वही बच्ची है जिसने आपके हाथों उस दिन जन्म लिया था।’ यह सुन डॉक्टर चंद्रा बोली, ‘सर! मैंने अपनी माँ को सदा आपके नाम का ही जाप करते देखा है।’ इस पर भावविभोर होते हुए वह महिला बोली, ‘डॉक्टर साहब, आपका नाम रामचंद्र है न। तो उसी नाम से लेकर मैंने अपनी बेटी का नाम चंद्रा रखा है। आपने हमें नया जीवन दिया। चंद्रा भी आपको ही आदर्श मान, गरीब महिलाओं का निशुल्क इलाज करती है।’


दोस्तों, बाद में वहाँ क्या चर्चा हुई होगी उसका अंदाज़ा आप भलीभाँति लगा सकते हैं। लेकिन अब यहाँ यह जानना ज़रूरी है कि डॉ आर. एच. कुलकर्णी समाज सेविका, सुप्रसिद्ध लेखिका और इन्फोसिस की चेयरपर्सन श्रीमती सुधा मूर्ति के पिता थे। अब आप समझ ही गए होंगे कि लेख की शुरुआत मैं मैंने क्यों कहा था कि ‘आपका व्यवहार, आपके संस्कार और आपका जीवन दर्शन ही आपके बच्चों को संस्कारी बनाता है; इस जीवन के प्रति उनके नज़रिए को तय करता है।’



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