Oct 24, 2024
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, जैसा कि रतन टाटा जी कहा करते थे, ‘ईसीजी के उतार-चढ़ाव हमारी हार्ट बीट याने हमारा दिल चल रहा है यह बताते हैं, ठीक इसी तरह जीवन के उतार-चढ़ाव यह बताते हैं कि हमारी ज़िंदगी आगे बढ़ रही है।’ अगर उनके इस कथन को आधार माना जाए तो लाभ की तरह हानि, संयोग की तरह वियोग, मिलने की तरह बिछड़ना, दिन की तरह रात का आना, आदि, बिलकुल स्वाभाविक है। जी हाँ दोस्तों, भाव सकारात्मक हों या नकारात्मक; अनुभव अच्छे हों या बुरे, दोनों ही सिर्फ़ एक ही बात की ओर इशारा करते हैं कि जीवन चल रहा है। शायद इसीलिए कहा जाता है, ‘कपड़े के ताने-बाने की तरह यह जीवन भी सुख और दुःख; उतार और चढ़ाव के ताने-बाने से बुना हुआ है।
आप स्वयं सोच कर देखिए, अगर जीवन में बुरा ना होता, तो अच्छे का क्या महत्व होता और ठीक इसी तरह, दुख का भान ना होता तो सुख का महत्व क्या होता? शायद मनुष्य जीवन सपाट और नीरस हो जाता। इसलिए जीवन में जो आ रहा है उसे स्वीकारना ही उसे सुख-शांति की ओर ले जाना है। वैसे इसे आप दूसरे नज़रिए से भी देख सकते हैं। हमारे जीवन में बुरा सिर्फ़ और सिर्फ़ इसलिए आ रहा है ताकि हम ख़ुद को सुधार कर और बेहतर बन सकें और जब आप बेहतर बनने का प्रयास करेंगे तब आप स्वाभाविक तौर पर और अधिक पुरुषार्थ करेंगे और अपने जीवन को पुण्यवान बनायेंगे। अब आपके मन में सवाल आ रहा होगा कि अगर बुरे के इतने लाभ है तो फिर जीवन में शुभ या अच्छा होने के क्या मायने हैं, तो आगे बढ़ने से पहले मैं आपको बता दूँ कि हमारे जीवन में शुभ इसलिए है कि उसे देखकर हम खुश और आनंदित हो सकें और फिर अपनी उपलब्धि या जीवन में आये सकारात्मक भाव का लाभ या वितरण दूसरों को कर सकें; इस समाज को बेहतर बना सकें।
वैसे भी दोस्तों इस विषय याने सुख-दुख, अच्छे-बुरे को इसी नज़रिए से देखना हमारे लिए लाभप्रद है क्योंकि इस नज़रिये का विरोध कर इन भावों को अपने जीवन में आने से रोका नहीं जा सकता है। अर्थात् जीवन में सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख आना ही है और इसी तरह अच्छे के बाद बुरा और बुरे के बाद अच्छा आना ही है। यह एक चक्र समान है। इसलिए दोनों स्थितियों में से कोई भी स्थिति क्यों ना हो, हमें उनका सामना खेल भावना के साथ करना चाहिये। जैसे ताश खेलते वक़्त बाज़ी हारने पर या किसी अन्य खेल में हारने पर, रोते-बिलखते, चीखते-चिल्लाते नहीं है, बल्कि हार को स्वीकार कर अगले मैच की तैयारियों में जुट जाते हैं। ठीक वैसे ही आप अपने जीवन में आगे क्यों नहीं बढ़ सकते?
वैसे भी जब हम भली-बुरी दोनों ही स्थितियों का सामना हंसते हुए कर सकते हैं, तो फिर रोने-बिलखने, चीखने-चिल्लाने से क्या फ़ायदा? आप स्वयं सोचिए क्या हमें यह जीवन कलपते हुए जीने के लिए मिला है? नहीं ना… जिस तरह आप खेल में हार को खुले मन से स्वीकारते हैं वैसे ही बुरे समय या हानि के दौर को हल्के में लेना; विपरीत समय को उपेक्षा के भाव से देखना आपके मन को हल्का रखता है और जब मन हल्का रहता है, तो आप जीवन में स्वस्थ चित्त के साथ आगे बढ़ पाते हैं। जी हाँ दोस्तों, विवेक पूर्ण जीवन जीने से शोक, वियोग, हानि, कष्ट, परेशानी, दुर्व्यवहार आदि सभी नकारात्मक स्थितियों को सामान्य रहते हुए हंसकर डील किया जा सकता है। दूसरी बात संतुलित मन; समस्याओं के हल आसानी से खोज सकता है।
इस आधार पर कहा जाए तो अपना मन सुधारना ही जीवन सुधारना है और मेरी नज़र में यह इतना कठिन काम नहीं है, जिसे किया ना जा सके। दूसरों को सुधारना कठिन हो सकता है, लेकिन हम अपने ही मन को ना मना सकें यह मानना मुश्किल है। जी हाँ दोस्तों, हम अपने आपको तो सुधार ही सकते हैं; अपने आपको तो समझा ही सकते हैं, अपने आपको तो सन्मार्ग पर चला ही सकते है। अपने जीवन को तो बेहतर बना ही सकते हैं। बस इसके लिए हमें ख़ुद के लिए कटिबद्ध रहकर पुरुषार्थ करना होगा। ऐसा करते वक़्त दोस्तों एक ही बात याद रखियेगा, आप अपनी आदतों, अपने मन से कई गुना अधिक बड़े और शक्तिशाली हैं।
दोस्तों, जैसा कि रतन टाटा जी कहा करते थे, ‘ईसीजी के उतार-चढ़ाव हमारी हार्ट बीट याने हमारा दिल चल रहा है यह बताते हैं, ठीक इसी तरह जीवन के उतार-चढ़ाव यह बताते हैं कि हमारी ज़िंदगी आगे बढ़ रही है।’ अगर उनके इस कथन को आधार माना जाए तो लाभ की तरह हानि, संयोग की तरह वियोग, मिलने की तरह बिछड़ना, दिन की तरह रात का आना, आदि, बिलकुल स्वाभाविक है। जी हाँ दोस्तों, भाव सकारात्मक हों या नकारात्मक; अनुभव अच्छे हों या बुरे, दोनों ही सिर्फ़ एक ही बात की ओर इशारा करते हैं कि जीवन चल रहा है। शायद इसीलिए कहा जाता है, ‘कपड़े के ताने-बाने की तरह यह जीवन भी सुख और दुःख; उतार और चढ़ाव के ताने-बाने से बुना हुआ है।
आप स्वयं सोच कर देखिए, अगर जीवन में बुरा ना होता, तो अच्छे का क्या महत्व होता और ठीक इसी तरह, दुख का भान ना होता तो सुख का महत्व क्या होता? शायद मनुष्य जीवन सपाट और नीरस हो जाता। इसलिए जीवन में जो आ रहा है उसे स्वीकारना ही उसे सुख-शांति की ओर ले जाना है। वैसे इसे आप दूसरे नज़रिए से भी देख सकते हैं। हमारे जीवन में बुरा सिर्फ़ और सिर्फ़ इसलिए आ रहा है ताकि हम ख़ुद को सुधार कर और बेहतर बन सकें और जब आप बेहतर बनने का प्रयास करेंगे तब आप स्वाभाविक तौर पर और अधिक पुरुषार्थ करेंगे और अपने जीवन को पुण्यवान बनायेंगे। अब आपके मन में सवाल आ रहा होगा कि अगर बुरे के इतने लाभ है तो फिर जीवन में शुभ या अच्छा होने के क्या मायने हैं, तो आगे बढ़ने से पहले मैं आपको बता दूँ कि हमारे जीवन में शुभ इसलिए है कि उसे देखकर हम खुश और आनंदित हो सकें और फिर अपनी उपलब्धि या जीवन में आये सकारात्मक भाव का लाभ या वितरण दूसरों को कर सकें; इस समाज को बेहतर बना सकें।
वैसे भी दोस्तों इस विषय याने सुख-दुख, अच्छे-बुरे को इसी नज़रिए से देखना हमारे लिए लाभप्रद है क्योंकि इस नज़रिये का विरोध कर इन भावों को अपने जीवन में आने से रोका नहीं जा सकता है। अर्थात् जीवन में सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख आना ही है और इसी तरह अच्छे के बाद बुरा और बुरे के बाद अच्छा आना ही है। यह एक चक्र समान है। इसलिए दोनों स्थितियों में से कोई भी स्थिति क्यों ना हो, हमें उनका सामना खेल भावना के साथ करना चाहिये। जैसे ताश खेलते वक़्त बाज़ी हारने पर या किसी अन्य खेल में हारने पर, रोते-बिलखते, चीखते-चिल्लाते नहीं है, बल्कि हार को स्वीकार कर अगले मैच की तैयारियों में जुट जाते हैं। ठीक वैसे ही आप अपने जीवन में आगे क्यों नहीं बढ़ सकते?
वैसे भी जब हम भली-बुरी दोनों ही स्थितियों का सामना हंसते हुए कर सकते हैं, तो फिर रोने-बिलखने, चीखने-चिल्लाने से क्या फ़ायदा? आप स्वयं सोचिए क्या हमें यह जीवन कलपते हुए जीने के लिए मिला है? नहीं ना… जिस तरह आप खेल में हार को खुले मन से स्वीकारते हैं वैसे ही बुरे समय या हानि के दौर को हल्के में लेना; विपरीत समय को उपेक्षा के भाव से देखना आपके मन को हल्का रखता है और जब मन हल्का रहता है, तो आप जीवन में स्वस्थ चित्त के साथ आगे बढ़ पाते हैं। जी हाँ दोस्तों, विवेक पूर्ण जीवन जीने से शोक, वियोग, हानि, कष्ट, परेशानी, दुर्व्यवहार आदि सभी नकारात्मक स्थितियों को सामान्य रहते हुए हंसकर डील किया जा सकता है। दूसरी बात संतुलित मन; समस्याओं के हल आसानी से खोज सकता है।
इस आधार पर कहा जाए तो अपना मन सुधारना ही जीवन सुधारना है और मेरी नज़र में यह इतना कठिन काम नहीं है, जिसे किया ना जा सके। दूसरों को सुधारना कठिन हो सकता है, लेकिन हम अपने ही मन को ना मना सकें यह मानना मुश्किल है। जी हाँ दोस्तों, हम अपने आपको तो सुधार ही सकते हैं; अपने आपको तो समझा ही सकते हैं, अपने आपको तो सन्मार्ग पर चला ही सकते है। अपने जीवन को तो बेहतर बना ही सकते हैं। बस इसके लिए हमें ख़ुद के लिए कटिबद्ध रहकर पुरुषार्थ करना होगा। ऐसा करते वक़्त दोस्तों एक ही बात याद रखियेगा, आप अपनी आदतों, अपने मन से कई गुना अधिक बड़े और शक्तिशाली हैं।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
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