Aug 12, 2024
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, आलस्य के कारण काम को टालना और मनमाफिक परिणाम ना मिलने पर लोगों, परिस्थितियों या भाग्य को दोष देना एक ऐसा रास्ता है जो आपको निश्चित तौर पर असफल बनाता है। जी हाँ, मैंने जानबूझकर लेख की शुरुआत एक नकारात्मक वक्तव्य के साथ की है क्योंकि सही समय पर सही बात कहना, सुनना और मानना आवश्यक होता है, अन्यथा आप जीवन में सब कुछ होते हुए भी पिछड़ जाते हो।
उक्त विचार मुझे हाल ही में बच्चों के लालन-पालन याने पेरेंटिंग पर किए गए एक सेमिनार के दौरान उस वक़्त आये, जब प्रश्नोत्तर काल के दौरान कई माता-पिता ने बच्चों की काम टालने की प्रवृति, आलस्य और दोष देने की आदत पर प्रश्न किए। ज़्यादातर माता-पिता का मानना था कि बच्चे आजकल एक बार में किसी बात को सुनते ही नहीं हैं। वैसे दोस्तों, यह सिर्फ़ बच्चों की समस्या नहीं है, हम में से कई लोग इसके शिकार हैं। अगर मेरी बात से सहमत ना हों, तो जरा ख़ुद को और अपने आस-पास मौजूद लोगों को एक बार टटोल कर देख लीजियेगा, आपको सच्चाई समझ आ जाएगी।
इसलिए मेरा मानना है कि हमें बच्चों को कम उम्र से ही दो बातों को सिखाना चाहिए। पहली, जो हमें हमारे धर्म ग्रन्थों में सिखाई गई है, ‘आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।’ अर्थात् आलस्य मनुष्य के शरीर का सबसे बड़ा शत्रु है क्योंकि आलस्य उस इंसान को कर्म याने पुरुषार्थ करने से रोकता है। और जब इंसान कर्म नहीं करेगा तब उसके पास भाग्य को कोसने के अलावा कुछ बचता ही नहीं है। इसलिए मैंने पूर्व में कहा था, ‘आलसी व्यक्ति सदैव भाग्य को दोष देकर पछताता रहता है।’
दूसरी बात, मनुष्य जीवन के प्रगति मार्ग का भी सबसे बड़ा शत्रु, उसका आलस्य ही होता है। इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति जिस तरह किसी भी अन्य तरीक़े के शत्रु से सावधान रहता है, ठीक वैसे ही उसे आलस्य से भी सावधान रहने की आवश्यकता है। दूसरे शब्दों में कहूँ तो, जिस तरह सैनिक शत्रु के आक्रमण से बचने के लिए सदैव सतर्क रहते हैं, ठीक वैसे ही बुद्धिमान व्यक्ति आलस्य के आक्रमण से बचने के लिए भी सदैव सावधानी बरतता है।
यक़ीन मानियेगा दोस्तों, बिना आलस्य को जीते सफलता पाने के विषय में सोचना भी असंभव है। जीवन में कर्म याने पुरुषार्थ के बिना सफलता मिल ही नहीं सकती है। इसीलिए कहा जाता है, ‘पुरुषैर्थ्यते इति पुरुषार्थः!’ अर्थात् पुरुषार्थ ही मनुष्य का उद्देश्य है। वैसे भी, पुरुषार्थ अपने अंदर ही दो शब्दों को समेटे हुए है, जो उसके अर्थ को समझा देते हैं। अर्थात् पुरुष + अर्थ याने पुरुषार्थ। यहाँ बताने की ज़रूरत नहीं है कि उपरोक्त में पुरुष का तात्पर्य विवेक संपन्न मनुष्य से है।
इस आधार पर कहा जाए तो, ‘विवेकशील मनुष्यों के द्वारा लक्ष्यों की प्राप्ति ही पुरुषार्थ है।’ और जो व्यक्ति लक्ष्य प्राप्ति में लगा हो अर्थात् पुरुषार्थ कर रहा हो उसके जीवन में भाग्य को दोष देने का समय ही नहीं बचता है। इसीलिए हमारे पूर्वजों या गुरुओं द्वारा कहा गया है, ‘जो आलस्य से शत्रु के समान दूरी रखता है और पुरुषार्थ को अपना मित्र समझकर पास में रखता है, ऐसा मनुष्य अपने भाग्य का नव निर्माण स्वतः कर लेता है।’
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
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