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Writer's pictureNirmal Bhatnagar

इस कुएँ में गिरने के बाद बचना है मुश्किल…

May 15, 2024

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

आईए दोस्तों, आज के लेख की शुरुआत एक कहानी से करते हैं। बात राजा भोज के काल की है, जैसा कि हम सभी ने सुना है कि राजा भोज हमेशा ज्ञान और सत्य की खोज में लगे रहते थे, इसलिए हमेशा ही सत्संग के द्वारा कुछ ना कुछ सीखने का प्रयास किया करते थे। एक दिन उन्होंने भरे दरबार में प्रश्न किया कि ‘बताओ ऐसा कौन सा कुँआ है जिसमें गिरने के बाद आदमी बाहर नहीं निकल पाता है?’ सभी सभासदों ने भरसक प्रयास किया लेकिन कोई भी राजा भोज की अपेक्षा के अनुरूप संतोष पूर्ण उत्तर नहीं दे पाया। अंत में राजा भोज ने अपने राज पंडित से भी इसी प्रश्न को पूछा, लेकिन अन्य सभासदों के माफ़िक़ वे भी संतोष पूर्ण उत्तर नहीं दे पाये। इस पर राजा भोज ने उन्हें इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए सात दिन देते हुए कहा, ‘पंडित जी सात दिन के भीतर इस प्रश्न का उत्तर खोज कर लाओ अन्यथा मैं आपसे अभी तक इनाम में दिया सारा धन वापस ले लूँगा और साथ ही आपको इस नगरी को छोड़ कर दूसरी जगह जाना होगा।’


राजा को प्रणाम कर पंडित जी उक्त प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए निकल पड़े। अब वे जिससे भी मिलते उससे राजा के पूछे गये प्रश्न पर चर्चा करते। लेकिन कोई भी उन्हें इस प्रश्न का सटीक उत्तर नहीं दे पा रहा था। इन्हीं प्रयासों में दिन गुजरते जा रहे थे और हर गुजरते दिन के साथ पंडित जी का तनाव बढ़ता जा रहा था। छठा दिन बीतते-बीतते पंडित जी ने स्वयं नगर छोड़ने का निर्णय लिया और अपनी ज़रूरत का सामान गठरी में बांध कर चल पड़े।


काफ़ी देर तक चलने के बाद जब पंडित जी जंगल के समीप पहुँचे तो वहाँ उन्हें भेड़-बकरी चराता एक गड़रिया मिला, जो उन्हें देखते ही पहचान गया। गड़रिए ने सबसे पहले पंडित जी को प्रणाम करा, फिर बोला, ‘महाराज! अगर मैं सही पहचान रहा हूँ तो आप हमारे राज्य के राज पंडित हैं और आप तो हमारे राजा के दुलारे भी हैं। पर मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि आपके चेहरे पर इतनी उदासी क्यों है?’ पंडित जी ने सोचा यह गड़रिया मेरी क्या मदद करेगा? इससे पूछने का क्या फ़ायदा?


इस विचार ने पंडित जी को चुप रहने को विवश किया। लेकिन गड़रिया भी कहाँ मानने वाला था, उसने पुनः पंडित जी से उदासी का कारण पूछते हुए कहा, ‘महाराज हम भी सत्संगी हैं, हो सकता है आपके प्रश्न का जवाब हमारे पास मिल जाए। अतः निःसंकोच पूछिए।’ गड़रिए की बात सुन राज पंडित ने सोचा, ‘इतने लोगों से तो पूछ लिया, एक और से पूछ लेते हैं क्या फ़र्क़ पड़ता है।’ विचार आते ही राज पंडित ने राजा का पूछा प्रश्न गड़रिए से पूछ लिया और साथ ही उसे बता दिया कि अगर मैंने कल सुबह तक इसका जवाब नहीं दिया तो राजा मुझे नगर से बाहर निकाल देगा।’


पंडित की बात सुनते ही गड़रिया बोला, ‘पंडित जी, मेरे पास पारस पत्थर है, उससे खूब सारा सोना बनाओ। फिर एक राजा भोज क्या लाखों भोज जैसे राजा तेरे आगे पीछे घूमेंगे। बस पारस पत्थर पाने के लिए तुम्हें मेरी एक शर्त मानना होगी। तुम्हें मेरा चेला बनना पड़ेगा।’ राज पंडित ने पहले तो अहंकार वश मना किया। फिर स्वार्थ पूर्ति हेतु हाँ कर दिया। पंडित के हाँ करते ही गड़रिया बोला, ‘चलो फिर सब ठीक है, भेड़ का दूध पियो और चेले बनो।’ इस पर राज पंडित बोले, ‘यदि ब्राह्मण भेड़ का दूध पियेगा तो उसकी बुद्धि मारी जाएगी। कुछ भी हो जाए मैं भेड़ का दूध नहीं पियूँगा।’ पंडित के ना करते ही गड़रिया बोला, ‘तो फिर ठीक है, मैं भी तुम्हें पारस नहीं दूँगा।’ गड़रिए से ‘ना’ सुनते ही पंडित जी बोले, ‘ठीक है, मैं दूध पीने के लिए तैयार हूँ।’ इस पर गड़रिया बोला, ‘अब तो पहले दूध मैं झूठा करूँगा, फिर तुम्हें पीना पड़ेगा।’ इतना सुनते ही राज पंडित बोले, ‘तू तो हद करता है। ब्राह्मण को झूठा दूध पिलायेगा?’ गड़रिया बोला, ‘ठीक है मत पियो और जाओ यहाँ से।’ पंडित जी एक बार फिर रुख़ बदलते हुए बोले, ‘मैं तैयार हूँ, तुम्हारा झूठा दूध पीने को।’ इतने में गड़रिया बोला, ‘वह बात गयी। अब तो सामने जो मरे हुए इन्सान की खोपड़ी का कंकाल पड़ा है, उसमें मैं दूध दोहूंगा, फिर उसको झूठा करूंगा और फिर अंत में तुम्हें पिलाऊंगा। तब तुम्हें मिलेगा पारस, नहीं तो अपना रास्ता लीजिए।’ राज पंडित ने खूब विचार कर कहा, ‘है तो बड़ा कठिन, लेकिन मैं तैयार हूँ।’


राज पंडित के इतना कहते ही गड़रिया बोला, ‘लो मिल गया राजा के प्रश्न का जवाब, यही तो वो कुआँ है जिसकी तुम तलाश कर रहे हो।’ पंडित जी बोले, ‘मैं समझा नहीं?’ इस पर गड़रिया बोला, ‘लोभ और तृष्णा का कुआँ, वह कुआँ है, जिसमें आदमी एक बार गिर या फँस जाए तो फिर वह गिरता या फँसता ही चला जाता है और फिर कभी उससे निकल नहीं पाता है। जैसे कि तुम पारस को पाने के लिए इस लोभ रूपी कुएं में गिरते ही चले गए !!!


दोस्तों, कहीं ना कहीं यह हमारे समाज की आज की स्थिति है। समाज में कई लोग आज लोभ और तृष्णा के इस कुएँ में गिरते ही चले जा रहे हैं और इसीलिए वैचारिक उलझनों का शिकार होकर तनावग्रस्त जीवन जी रहे हैं। इतना ही नहीं, लोभ और तृष्णा कहीं ना कहीं समाज में मूल्यों को भी गिरा रही है और मूल्यहीन समाज हमारे जीवन की तमाम परेशानियों की वजह बनता है। तो आईए दोस्तों, हम सब मिलकर समाज और बच्चों को जागृत करते हैं।


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

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