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ईश्वर एवं माता-पिता क्रिया से भेद करते हैं, भाव से नहीं…

Writer's picture: Nirmal BhatnagarNirmal Bhatnagar

Apr 11, 2023

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, सकारात्मक पेरेंटिंग एक ऐसी चुनौती है जिससे किसी तय फ़ॉर्म्युला के तहत निपटना सम्भव नहीं होता। लेकिन एक बात तो तय है सकारात्मक पेरेंटिंग के दौरान मिले अनुभव हमें रोज़ अपने जीवन को बेहतर बनाने का मौक़ा ज़रूर देते हैं। हाल ही में ऐसा ही एक अनुभव मुझे एक बच्चे की काउन्सलिंग के दौरान मिला। लगभग 13-14 वर्षीय वह बच्चा, अपनी समझ के अनुसार यह मान चुका था या यूँ कहूँ कि धारणा बना चुका था कि उसके माता-पिता उसके साथ सौतेला व्यवहार कर रहे हैं। वह बात-बात पर अपने माता-पिता को दोष दिया करता था। जैसे मुझसे से हुई बातचीत की शुरुआत उसने यह कहते हुए की, ‘अंकल, कई बार पापा-मम्मी का व्यवहार देख ऐसा लगता है, जैसे मैं इनका बेटा ही नहीं हूँ। यह मुझे किसी मेले से उठा कर लाएँ हों। जब देखो तब चिढ़ते-चिल्लाते रहते हैं… कभी किसी बात पर, तो कभी बिना किसी बात पर। इन्हें तो बस इनकी बेटी प्यारी है, पढ़ाई में नम्बर 1 जो आती है।’


बातचीत की शुरुआत में बच्चे के उक्त शब्द सुन माता-पिता के साथ-साथ में भी अवाक था। कुछ पलों तक तो मुझे समझ ही नहीं आया कि मैं बात कहाँ से शुरू करूँ? ख़ैर मैंने शुरू में बच्चे की बात का समर्थन करते हुए शुरुआत करने का निर्णय लिया और उससे कहा, ‘हो सकता है तुम सही सोच रहे हो कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे साथ पक्षपात कर रहे हों। यह भी सम्भव है कि वे तुमसे ज़्यादा तुम्हारी बहन को प्यार करते हों। लेकिन इस बात से इनकार भी नहीं किया जा सकता है कि स्थिति इसके उलट ना हो याने वे तुम्हें तुम्हारी बहन से ज़्यादा प्यार करते हों या फिर उनकी नज़र में तुम दोनों एक समान हो, बस उनका तुम्हें और तुम्हारी बहन को डील करने का तरीक़ा अलग-अलग हो।’


मैं आगे कुछ कहता उसके पहले ही वह बच्चा मुझे बीच में ही टोकते हुए बोला, ‘मुझे तो ऐसा नहीं लगता।’ मैंने उसकी बात को नज़रंदाज़ करते हुए कहा, ‘अभी तुम इस बात को यहीं छोड़ो और पहले मेरे एक साधारण से सवाल का जवाब दो। क्या तुमने कभी कोई दवाई खाई है?’ बच्चे ने तुरंत हाँ में सर हिला दिया। मैंने तुरंत उससे अगला सवाल करा, ‘उसका स्वाद कैसा था?’ बच्चा बोला, ‘एकदम कड़वा।’ मैंने बात आगे बढ़ाते हुए उससे कहा, ‘क्या सर्दी-खांसी होने पर तुमने दवाई के रूप में कोई सिरप पिया है?’ बच्चे ने एक बार फिर हाँ में सर हिला दिया। मैंने भी एक बार फिर उससे सवाल किया, ‘क्या उस सिरप का स्वाद भी कड़वा था?’ बच्चा बोला, ‘नहीं-नहीं अंकल वह तो मीठा था।’


उसका जवाब सुन मैंने मुस्कुराते हुए कहा, ‘देखो, डॉक्टर द्वारा अलग-अलग बीमारी के लिए अलग-अलग पेशेंट को अलग-अलग दवाई दी जाती है। कोई दवाई एकदम कड़वी होती है, तो कोई एकदम मीठी। दोनों पेशेंट को अलग-अलग दवाई देने के बावजूद भी डॉक्टर का उद्देश्य एक ही होता है, रोगी को ठीक करना या उसको स्वास्थ्य लाभ प्रदान करना। ठीक इसी तरह ईश्वर समान हमारे माता-पिता द्वारा भी कई बार हमारे साथ अलग-अलग व्यवहार किया जाता है। लेकिन इस अलग व्यवहार के पीछे भी एक ही उद्देश्य होता है, ‘हमारे जीवन को परेशानी रहित बनाना, हमें भविष्य के लिए तैयार करना।’


दोस्तों, मुझे यह तो नहीं पता कि वह बच्चा मेरी इस बात को कितना समझ पाया होगा, पर मुझे लगता है, बच्चों को सकारात्मक तरह से अगर तर्कों के साथ कोई बात समझाई जाए, तो उनके समझने की सम्भावना कई गुना बढ़ जाती है। वैसे दोस्तों, यही तर्क ईश्वर द्वारा हमें दी गई चुनौतियों के विषय में भी लागू होता है। उदाहरण के लिए भगवान श्री कृष्ण ने सुदामा को अकिंचन बना कर तो राजा बली को सम्राट बना कर इस दुनिया से तारा। ठीक इसी तरह उन्होंने पांडवों को अपना साथी या मित्र बनाकर, तो कौरवों को अपना दुश्मन बना कर इस जीवन से तारा। इसलिए दोस्तों, अगर ईश्वर द्वारा भले ही आपके साथ देखने में भिन्न व्यवहार किया जा रहा हो, लेकिन याद रखिएगा उसका भी उद्देश्य आपके जीवन को बेहतर बनाना और इस दुनिया का कल्याण करना ही होगा। याद रखिएगा दोस्तों, माता-पिता और भगवान केवल क्रिया से भेद करते हैं, भाव से नहीं।


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

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