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उम्मीद पर दुनिया टिकी है!!!

  • Writer: Nirmal Bhatnagar
    Nirmal Bhatnagar
  • Aug 4, 2024
  • 3 min read

Aug 4, 2024

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, निश्चित तौर पर आपने किसी ना किसी से सुना ही होगा कि ‘उम्मीद पर दुनिया टिकी है!’ और आपने इसे कहावत या लोकोक्ति के तौर पर कभी ना कभी, कहीं ना कहीं इस्तेमाल भी किया होगा। लेकिन मेरी नज़र में यह ना तो कहावत है और ना ही लोकोक्ति क्योंकि यह बात तो वैज्ञानिकों द्वारा 1950 के दशक में हार्वर्ड के जाने-माने स्नातक और जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक कर्ट रिक्टर के अपरंपरागत प्रयोग से सिद्ध की जा चुकी है। आईए आज के शो में हम इस अपरंपरागत प्रयोग के अद्भुत परिणाम पर चर्चा करते हैं।


इस अपरंपरागत प्रयोग में कर्ट रिक्टर ने यह जानने का प्रयास किया था कि चूहे पानी में डूबने से पहले कितनी देर तक तैर सकते हैं। अपने इस प्रयोग में रिक्टर ने एक चूहे को पानी से आधे भरे जार में डाल दिया। स्वाभाविक रूप से चूहा पानी से भरे जार में अपनी जान बचाने के लिए संघर्ष करने लगा। लेकिन जब उसे जार से निकलने में सफलता नहीं मिली तो कुछ देर तक संघर्ष करने के बाद उसने हार मान ली और अंत में उस पानी में डूब कर मर गया।


इसके पश्चात रिक्टर ने इसी प्रयोग को थोड़े से बदलाव के साथ एक बार फिर दोहराया। इस बार उन्होंने एक और चूहे को लिया और पानी से आधे भरे उसी जार में डाल दिया। पिछली बार की ही तरह इस बार भी चूहा बाहर निकलने के लिए संघर्ष करने लगा लेकिन असफल रहने पर पानी में डूबने लगा। लेकिन इस बार रिक्टर ने उसे डूबने से ठीक पहले पानी से बाहर निकाल लिया और उसे प्यार से सहलाया। जब चूहा थोड़ा सामान्य हो गया तो विक्टर ने उसे एक बार फिर उसी पानी के जार में डाल दिया। चूहा एक बार फिर अपनी जान बचाने के लिए संघर्ष करने लगा। लेकिन संघर्ष के इस दौर में पिछली बार डूबने से बचाये जाने और प्यार से सहलाने के अनुभव के कारण उसका व्यवहार पूरी तरह बदल गया था, जिसे देख रिक्टर भी हैरान थे।


असल में प्रयोग के पहले चरण के अनुभव के आधार पर रिक्टर का अनुमान था कि चूहा अधिकतम 15 से 20 मिनिट संघर्ष करने के बाद डूब जाएगा। लेकिन हैरानी की बात थी कि प्रयोग के दूसरे चरण में ऐसा कुछ नहीं हुआ और चूहा बिना हार माने अपेक्षा से कहीं अधिक 60 घंटे तक जान बचाने के लिए संघर्ष करता रहा। जी हाँ दोस्तों सही सुना आपने, चूहा 60 घंटे तक बिना रुके पानी से बाहर आने की कोशिश करता रहा। यह देख रिक्टर हैरान थे, वे सोच रहे थे कि पहले जो चूहा १५ मिनिट के भीतर ही हार मान कर डूब रहा था अब वही चूहा पिछले 60 घंटे से लगातार संघर्ष कर रहा था और हार मानने को तैयार नहीं था। कर्ट रिक्टर ने इस प्रयोग को ‘द होप एक्सपेरिमेंट’ याने ‘उम्मीद पर प्रयोग’ नाम दिया।


दोस्तों, उपरोक्त प्रयोग के पहले चरण में जो चूहा मारा गया था उसके मन में यह धारणा घर कर गई थी कि वह ऐसी स्थिति में है, जिससे बचने का कोई उपाय ही नहीं है। इसलिए वह हार मान लेता है और डूब कर मर जाता है। अर्थात् आशा की कमी या निराशा ने उसे मार डाला था। लेकिन प्रयोग के दूसरे चरण में बचाए जाने की आशा के कारण चूहे की प्रतिक्रिया में बदलाव आया था। याने जब चूहे को डूबने के तुरंत पहले उसे पानी से निकाल गया तो उसे पता चला कि अभी सब कुछ समाप्त नहीं हुआ है और स्थिति वास्तव में निराशाजनक नहीं है क्योंकि वहाँ पर मदद करने वाला अनजान हाथ मौजूद है। इसीलिए वह चूहा सामान्य से कई गुना अधिक समय तक विपरीत स्थिति में संघर्ष करता रहा। संक्षेप में कहूँ तो जब उसे तैरते रहने का कारण मिला तो उसने हार नहीं मानी और वह डूबा नहीं।


इस आधार पर कहा जाए दोस्तों तो आशा मानव जीवन का एक अनिवार्य अंग है। अगर किसी इंसान को यह विश्वास दिला दिया जाये कि जीवन अभी भी जीने लायक़ है तो वह तमाम विपरीत परिस्थितियों से लड़कर वापसी कर सकता है, जबकि निराशा उससे सब कुछ छीन सकती है। इसलिए दोस्तों कहा जाता है कि ‘आशा, दिल में आंतरिक विश्वास से विकसित होने वाला एक दृष्टिकोण है, जो आपको हर हाल में संघर्ष करने के लिए तैयार करता है।’


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

 
 
 

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