Oct 12, 2023
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
दोस्तों, यह बिलकुल सही है कि नई पीढ़ी को अपनी परम्परायें, पारिवारिक और सामाजिक संस्कार, सांस्कृतिक विरासत देना हमारा याने माता-पिता या वरिष्ठों का कार्य है। लेकिन इसका अर्थ यह क़तई नहीं है कि इन सब बातों को सिखाने के प्रयास में हम मानवीय संवेदनाएँ या बच्चों की स्वाभाविक ज़रूरतों को ही भूल जाएँ। सांकेतिक रूप से चर्चा करने के स्थान पर मैं अपनी बात को इस बुधवार को घटी एक घटना से समझाने का प्रयास करता हूँ।
व्यक्तिगत कारणों से इस बुधवार मुझे उज्जैन जाने का मौक़ा मिला। अपना कार्य पूर्ण करने के पश्चात मैं किसी परिचित से मिलने के लिये उनके घर गया। वहाँ मेरा स्वागत एक बच्चे के तेज रोने की आवाज़ के साथ हुआ। शुरू में तो मुझे यह थोड़ा सामान्य लगा लेकिन जब काफ़ी देर तक बच्चा चुप नहीं हुआ तो मैंने उन सज्जन से कहा कि मैं थोड़ी देर इंतज़ार कर लेता हूँ तब तक आप बच्चे को सम्भाल लीजिए। शायद वह आपसे ही कुछ कहना चाहता होगा। मेरे इतना कहते ही वे सज्जन बोले, ‘सर, वह बीस मिनिट बाद अपने आप ही चुप हो जाएगा। अभी उसे कुछ समझाने से फ़ायदा नहीं होगा क्योंकि वह अभी भूखा है।’ मैंने तुरंत बात आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘सर, तो फिर आप उसे पहले खाने के लिए कुछ दे दीजिए ना।’ मेरे इतना कहते ही वे सज्जन बोले, ‘सर, आज घर पर श्राद्ध है और हम सब बारह बजे धूप देने और ब्राह्मण भोजन के बाद ही कुछ खाएँगे। बच्चे को मैंने समझाने का प्रयास करा लेकिन वह समझ नहीं रहा है। असल में उसके लिए यह पहला अनुभव है, अभी 11.40 हो गया है तो सिर्फ़ बीस मिनिट की ही बात है।’ मैंने उन सज्जन को अपना मत बताने के लिए जैसे ही कुछ बोलना चाहा, उन्होंने मेरी बात लगभग बीच में ही काटते हुए कहा, ‘सर, बच्चे को अभी से ही अगर अपनी संस्कृति और परंपराओं से नहीं जोड़ेंगे तो वे इन सब बातों का महत्व कैसे समझेंगे; इन्हें कैसे सीखेंगे। आप चिंता मत कीजिए, बीस मिनिट में सब सामान्य हो जाएगा और समय के साथ बच्चे में भी इस विषय को लेकर समझ आ जाएगी।’
उन सज्जन का तर्क सुन मैं हैरान था। मैं सोच रहा था असल में समझ की ज़रूरत उस बच्चे को है या इन सज्जन को क्योंकि हमारी संस्कृति में तो यह भी सिखाया गया है कि बच्चे भगवान का स्वरूप होते हैं और हमारे पितृ, जिनकी संतुष्टि के लिए यह श्राद्ध किया जा रहा था, वे भी हमारे लिए भगवान के समान ही हैं। ऐसे मैं अगर भोग उस बच्चे को लग जाता, उसकी आत्मा तृप्त हो जाती तो क्या नुक़सान था? रही बात संस्कृति सिखाने की, तो एक या दो वर्ष बाद उसे श्राद्ध के महत्व और उसकी आवश्यकता के बारे में सिखाते हुए, धर्म और संस्कृति से जोड़ा जा सकता था। मुझे नहीं पता साथियों मैं सही सोच रहा था या नहीं, लेकिन मेरा मानना है किसी एक की आत्मा को दुखाकर किसी अन्य की आत्मा को संतुष्ट नहीं किया जा सकता है।
ख़ैर, वैचारिक तौर पर उनसे भिन्न होने के कारण मैंने उस वक़्त वहाँ से रवाना होने का निर्णय लिया और उन सज्जन का धन्यवाद कर उठ गया। मेरे इतना कहते ही वे सज्जन बोले, ‘सर, अगर बुरा ना मानें तो आप प्रसाद लेकर जाइएगा। आज के दिन आगंतुक का प्रसाद लेना भी हमारे धर्म में बड़ा महत्व रखता है।’ मैंने फ्लाइट के टाइम को बताते हुए उस वक़्त वहाँ रुकने में असमर्थता जताई और वहाँ से रवाना हो गया।
दोस्तों आगे बढ़ने से पहले मैं आपको बता दूँ कि श्राद्ध का भोजन करने में मुझे कोई समस्या नहीं थी। बस मेरे आगे तो मेरे जीवन मूल्य आ रहे थे कि एक बच्चे को भूखा रख मैं कैसे अलग-अलग व्यंजन खाऊँ। मुझे नहीं पता आप सब की नज़र में मेरा निर्णय सही था या नहीं। लेकिन मैं तो अंत तक यही कहूँगा कि एक आत्मा को दुखाकर दूसरी आत्मा को प्रसन्न नहीं किया जा सकता है। वैसे भी हमारा धर्म, संस्कृति, परम्परायें, पारिवारिक और सामाजिक संस्कार और सांस्कृतिक विरासत आदि हमें मानवीय मूल्य या इंसानियत ही सिखाती है। इस विषय मैं आप क्या सोचते हैं, कमेंट या फीडबैक के माध्यम से अवगत ज़रूर करवाइयेगा।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
nirmalbhatnagar@dreamsachievers.com
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