Nov 3, 2024
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
दोस्तों, हाल ही में एक विद्यालय के कंस्ट्रक्शन के एक कार्य के दौरान मैंने महसूस किया कि ज्यादातर लोगों का लक्ष्य गुणवत्ता पूर्ण कार्य करना नहीं, अपितु कार्य को सिर्फ़ और सिर्फ़ ‘निपटाना’ होता है। मेरी नजर में इसकी मुख्य वजह बदलती प्राथमिकताएँ, जीवन मूल्यों में आई कमी और उसकी वजह से बना ग़लत नज़रिया है। जी हाँ साथियों, मुनाफ़े और ‘क्या फ़र्क़ पड़ता है’ की सोच आज कहीं ना कहीं उत्कृष्टता या यूँ कहूँ कार्य की गुणवत्ता को प्रभावित कर रही है।
जब मैंने इस विषय में कांट्रेक्टर को आगाह करा, तो उनका कहना था कि हमारे काम में ग़लतियाँ निकालना बड़ा आसान है। मैंने कंस्ट्रक्शन की गुणवत्ता और डिज़ाइन के आधार पर किए गए कार्य को उन्हें ही जांचने के लिए कहा, तो वे बोले, ‘सर इतनी चूक या गलती तो चलती है।’ अंतिम हथियार का उपयोग करते हुए मैंने कहा, ‘चलिए सर, इस बात को यहीं छोड़िये और पहले एक कहानी सुनिए।’ और फिर उन्हें एक कहानी सुनाई जो इस प्रकार थी…
एक जर्मन अपनी भारत यात्रा के दौरान, एक निर्माणाधीन मंदिर में गया। उन्होंने वहाँ एक मूर्तिकार को देखा, जो एक देवी की मूर्ति बना रहा था, जिसे बाद में मंदिर में स्थापित किया जाना था। इधर-उधर देखते हुए उसे अचानक पास में ही एक वैसी की वैसी मूर्ति दिखाई पड़ी। आश्चर्यचकित होकर उसने मूर्तिकार से पूछा, "क्या तुम्हें एक ही देवी की दो मूर्तियाँ चाहिए?” "नहीं।" मूर्तिकार ने उसकी ओर देखे बिना ही उत्तर दे दिया। "हमें केवल एक मूर्ती की ही जरूरत है, लेकिन मूर्ति बनाने के अंतिम चरण में पहली मूर्ति क्षतिग्रस्त हो गई।" उसने काम जारी रखते हुए तर्क दिया।
जर्मन सज्जन पहली मूर्ति के पास गए और उसे बारीकी से देखा पर उन्हें उस मूर्ति में कोई कमी नजर नहीं आई। "इस मूर्ति में क्या कमी है?" उसने उलझन में पूछा। "उस मूर्ति की नाक पर एक खरोंच है।" मूर्तिकार ने अपने काम में व्यस्त रहते हुए बहुत साधारण तरीके से उत्तर दिया। "क्या मैं पूछ सकता हूँ कि यह मूर्ति कहाँ स्थापित होने वाली है?" जर्मन सज्जन ने मूर्तिकार से पूछा। मूर्तिकार ने उत्तर दिया, "यह मूर्ति लगभग बीस फीट ऊँचे एक स्तंभ पर स्थापित होगी।"
"क्या ?? अगर मूर्ति को इतनी दूर रखना है, तो किसी को कैसे पता चलेगा कि मूर्ति की नाक पर एक खरोंच है?" सज्जन ने आश्चर्य के साथ प्रश्न किया। मूर्तिकार ने अपना काम बंद कर, पहली बार सज्जन की ओर देखा औऱ मुस्कुराकर कहा, "और किसे, मुझे पता है ना।"
कहानी पूरी होते ही मैंने कांट्रेक्टर की ओर देखते हुए कहा, ’सर, हमें तो पता चल रहा है ना।’ इससे ज्यादा जरूरी और कुछ नहीं है। अन्यथा शहर के सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति से काम करवाने का क्या फ़ायदा। मुझे नहीं पता दोस्तों, मेरी बात का उनपर कोई असर हुआ या नहीं, पर मेरा तो मानना यही है। अगर आपका लक्ष्य ख़ुद को ब्रांड के रूप में स्थापित करना है, तो आपको अपने कार्य में सर्वोत्कृष्ट बनना ही होगा। वैसे यह बात आपके अच्छे इंसान बनने के लिए भी ऐसे ही लागू करती है। जब आप यह स्वीकार लेते हैं कि जब हमें कोई नहीं देख रहा होता है तब भी हमारी आत्मा हमें देख रही होती है। अर्थात् अगर हम यह स्वीकार लें कि हमारे हर कर्म के हम स्वयं साक्षी हैं, तो हमारे लिए गलती करना आसान नहीं होगा और जब गलती नहीं होगी तब सर्वोत्तम बनना मुश्किल नहीं होगा। इसलिए दोस्तों, पहाड़ पर चढ़ो तो इस इरादे से नहीं कि दुनिया तुम्हें देखे, बल्कि इस इरादे से चढ़ो कि तुम दुनिया को देख सको। याद रखना, जब हम अपना कर्तव्य करते है, तो उसके परिणाम को कोई भी नकार नहीं सकता। कर्तव्य की भावना से किए गए कार्य से अहंकार नहीं पनपता। यह कार्य में पूर्णता लाकर आपको विशेष बनाता है।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
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