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Writer's pictureNirmal Bhatnagar

कर्मों पर दें ध्यान…

Aug 13, 2024

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, हाल ही में हम सभी ने मित्रता दिवस बनाया याने सभी मित्रों को इस विशेष दिवस की बधाई दी और साथ ही उनसे बधाई ली। लेकिन मेरा इस विषय में मानना कुछ अलग है, ‘मित्रता’ कोई त्यौहार नहीं है, जो इसकी बधाई दी जाए, यह तो हमारे जीवन का इतना महत्वपूर्ण हिस्सा है कि इसके बिना सरल जीवन की परिकल्पना करना भी संभव नहीं है। ख़ैर मेरा आज का मुख्य विषय मित्रता नहीं है। आज तो हम मित्रता को आधार बनाकर, एक कहानी के माध्यम से जीवन की एक सच्चाई को थोड़ा बारीकी से समझने का प्रयास करते हैं।


बात कई साल पुरानी है, गाँव में रहने वाले जीवन के तीन बड़े ही अलग-अलग स्वभाव वाले मित्र थे। उसका पहला मित्र ऐसा था जो सदैव उसका साथ देता था। अर्थात् हर पल उसके साथ रहा करता था; एक पल, एक क्षण के लिये भी उससे नहीं बिछड़ता था। दूसरा मित्र थोड़ा अलग था, वह जीवन से सिर्फ़ सुबह और शाम को मिला करता था और अपना हर वार-त्यौहार उसके साथ मनाने का प्रयास किया करता था। तीसरा मित्र थोड़ा विचित्र था। वह जीवन से यदा-कदा ही याने कई-कई दिनों में मिला करता था।


एक दिन जीवन के जीवन में कुछ ऐसी घटना घटी कि उसको अदालत में पेश होने का आदेश आ गया। इस विशेष दिन जीवन को अपने साथ एक गवाह भी ले जाना था, जो यह बता सके कि उसने क्या-क्या किया है और क्या-क्या नहीं। काफ़ी सोच-विचार कर जीवन ने हर पल याने सदैव साथ रहने वाले मित्र को अपने साथ ले जाने का निर्णय लिया और उसके पास जाकर पूरी घटना बताते हुए उसे अपने साथ चलने का बोला। इस पर वह मित्र बड़े गंभीर स्वर में बोला, ‘माफ़ करो दोस्त, मुझे तो आज फुर्सत ही नहीं।’


इनकार सुनते ही जीवन थोड़ा सकपका गया। वह सोचने लगा कि ‘जो मित्र हमेशा मेरा साथ देता था, उसी ने आज मुसीबत के समय मुझे इनकार कर दिया। अब क्या किया जाए? तभी उसने सोचा, ‘चलो कोई बात नहीं, मैं अपने दूसरे दोस्त से बात कर लेता हूँ।’ विचार आते ही जीवन हिम्मत करके दूसरे मित्र के पास गया, जो उससे सुबह-शाम और वार-त्यौहार मिला करता था और उसे पूरी बात बताते हुए बोला, ‘क्या तुम मेरे साथ अदालत चलकर गवाही दे सकते हो?’ इसपर दूसरा मित्र बोला, ‘मैं इसी पल तुम्हारे साथ चलने के लिए राज़ी हूँ, पर मेरी एक शर्त है, मैं सिर्फ अदालत के दरवाजे तक जाऊँगा, अन्दर नहीं। अंदर का कार्य तुम्हें स्वयं करना होगा।’


बात सुनते ही जीवन एक बार फिर सोच में पड़ गया कि ‘बाहर के लिये तो मैं ही काफ़ी हूँ। मुझे तो मित्र का साथ अन्दर गवाही के लिये चाहिए था।’ अंत में उसने थक हारकर अपने तीसरे मित्र, जो उसे कभी-कभार ही कई-कई दोनों में मिला करता था, को अपनी समस्या सुनाने का निर्णय लिया। जीवन की बात पूरी होने के पहले ही तीसरा मित्र बोला, ‘चिंता मत करो, मैं तुम्हारे साथ इसी पल चलता हूँ।’, इतना कहकर तीसरा मित्र जीवन के साथ हो लिया और अदालत जाकर उसके पक्ष में सच्ची गवाही दे दी।


वैसे दोस्तों, मैं आपको बता दूँ कि आप जीवन और उसके मित्रों को अच्छे से जानते हैं। चौंक गए ना? चलिए चिंता मत कीजिए, पहेली के स्थान पर मैं आपको सीधे शब्दों में तीनों मित्रों के विषय में बता देता हूँ। इस कहानी का पात्र ‘जीवन’ असल में हम हैं और हमारा पहला मित्र जो सामान्यतः हमेशा हमारे साथ हर पल रहता है, वह हमारा शरीर है। यह हमारे साथ हर क्षण, जहाँ हम जाएँ साथ चलता है। शरीर रूपी यह पहला मित्र हमेशा हमारे साथ चलता है। एक पल, एक क्षण भी हमसे दूर नहीं होता।


हमारा दूसरा मित्र, जो अदालत के दरवाज़े तक हमारे साथ जाता है। वह हमारे माता-पिता, सगे-संबंधी, मित्र या परिचित लोग होते हैं। सामान्यतः यह लोग हमसे सुबह-शाम, वार-त्यौहार मिलते हैं। हमारा तीसरा मित्र, हमारे कर्म हैं, जो ज़रूरत के समय हर जगह हमारे साथ जाते हैं। अभी भी आप थोड़ा उलझन में हैं ना? चलिए कोई बात नहीं। मैं इसे आपको थोड़ा और स्पष्ट रूप से बताता हूँ। जब हमारी आत्मा हमारा शरीर छोड़कर धर्मराज की अदालत में जाती है, उस समय, हमेशा साथ देने वाला, शरीर रूपी हमारा पहला मित्र हमारे साथ आज, एक कदम भी नहीं चलता है। दूसरा मित्र, याने हमारे सगे-संबंधी, मित्र गण अदालत के दरवाज़े याने शमशान तक ‘राम नाम सत्य है!’, कहते हुए जाते हैं और फिर वहाँ से वापस लौट आते हैं और हमारा तीसरा और अंतिम दोस्त, कर्म हैं, जो सदा ही हमारे साथ उस सर्वोच्च अदालत तक जाता है। फिर चाहे वह अच्छे कर्म हो या बुरे।


इसीलिए दोस्तों, हमारे यहाँ कर्मों को इतना अधिक महत्व और उस पर पूरा ध्यान दिया जाता है। अगर हमारे कर्म अच्छे होंगे, तो हमारी गती अच्छी होगी और अगर कर्म अच्छे नहीं होंगे तो हमारी स्थिति पूरी तरह भिन्न होगी। इसलिए दोस्तों, अपने कर्मों पर सबसे अधिक ध्यान दो।


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

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