Oct 22, 2023
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
दोस्तों मानवीय स्वभाव का एक विचित्र पहलू यह है कि जब भी उसके साथ कुछ बुरा होता है, वह उसका ज़िम्मेदार किसी और को बताता है और जब भी कुछ उसके साथ अच्छा घटित होता है, वह सब उसके ख़ुद के द्वारा किया गया होता है। याने उपलब्धि के दौर में ‘मैं’ का भाव जागृत हो जाता है और उपलब्धि ना मिलने पर वह कोसने या ज़िम्मेदारियों से पल्ला झाड़ने लगता है। स्थिति दोनों में से कोई भी क्यों ना हो, रहती नुक़सानदायक ही है। दूसरे शब्दों में कहूँ तो ‘मैं’ का भाव या दोष देने की प्रवृति, दोनों ही मानसिक शांति को चुराने वाली होती हैं क्योंकि इन स्थितियों में सामान्यतः हम कर्म के स्थान पर फल को प्रधानता दे रहे होते हैं। हम सुखी जीवन के मूल सूत्र के विपरीत जाकर ख़ुशी, सुख और सफलता खोजने का प्रयास करते हैं।
अपनी बात को मैं आपको काउन्सलिंग के लिए आए एक छात्र की कहानी से समझाने का प्रयास करता हूँ। यह छात्र मेरे पास कक्षा- दसवीं उत्तीर्ण करने के बाद अपने भविष्य की योजना याने कैरियर प्लानिंग पर चर्चा करने के लिए आया। शुरुआती बातचीत में ही मुझे एहसास हो गया था कि बच्चे में असीम क्षमताएँ हैं और वह जिस लक्ष्य को चाहे, मेहनत कर पा सकता है। बच्चे की पसंद, क्षमता और भविष्य की संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए मैंने उसे एक रास्ता सुझाया, जो उसे बहुत पसंद आया।
लगभग ३ माह बाद एक दिन अचानक ही उस बच्चे के पिता का फ़ोन आया और वे बोले, ‘सर, बच्चा अब इंदौर जाकर आगे की पढ़ाई करने पर ज़ोर दे रहा है। जबकि मुझे ऐसा लग रहा है कि इससे उसे कुछ फ़ायदा नहीं होगा।’ मेरी नज़र में भी उस बच्चे के पिता सही सोच रहे थे। लेकिन बच्चे का मत बिलकुल अलग था, उसका मानना था कि अगर उसे यह मौक़ा नहीं मिला तो वह पिछड़ जाएगा और अपने लक्ष्य को कभी पा नहीं सकेगा। अंत में जीत बच्चे की ज़िद की हुई और पिता ने उसे अपने संपर्कों की सहायता से अगस्त माह के अंत में इंदौर के एक अच्छे विद्यालय में कक्षा- ग्यारहवीं में प्रवेश दिलवा दिया।
शुरुआती कुछ दिन तक तो सब कुछ ठीक रहा लेकिन बीतते समय के साथ अचानक मिली छूट के कारण बच्चे की प्राथमिकताएँ बदलने लगी और वह पढ़ाई में काफ़ी पीछे छूट गया। जिसके कारण उसका ग्यारहवीं का परीक्षा परिणाम बिगड़ गया। पिता ने जब इस विषय में उसे समझाने का प्रयास किया तो उसने इसका दोष उन्हीं के सर पर डालते हुए कहा, ‘अगर आप सही समय पर मेरा प्रवेश विद्यालय में करवा देते तो मेरे साथ ऐसा नहीं होता।’
ख़ैर पिता ने किसी तरह बात को सँभालते हुए उसकी इच्छानुसार उसका प्रवेश एक कोचिंग सेंटर में करवा दिया और एक बार फिर नये सिरे से शुरुआत की। बदली प्राथमिकताओं और ग़लत साथ के कारण बच्चा इस मौक़े को भी नहीं भुना पाया और उसे जल्द ही एहसास हो गया कि उसके लिए आशानुरूप परिणाम लाना मुश्किल होगा। इस असफलता की ज़िम्मेदारी लेने से बचने के लिए बच्चे ने परीक्षा फॉर्म ही नहीं भरा और एक बार फिर कक्षा- बारहवीं रिपीट करने का निर्णय लिया। दोस्तों, आज दो साल बाद भी वह बच्चा अधर में लटका है और वह इसका दोष कभी कोचिंग वाले सर पर, तो कभी माता-पिता पर देता है कि वे उसे सही समय पर समझ नहीं पाये।
सक्षम होने के बाद भी ज़िम्मेदारी ख़ुद पर लेने के स्थान पर उसे दूसरे पर ढोलने के नज़रिए के कारण आज वह छात्र समझौता करते हुए अपना जीवन बर्बाद कर रहा है। जिसका प्रभाव आज उसकी मनःस्थिति, मानसिक शांति और ऊर्जा पर स्पष्ट तौर पर दिख रहा है और अगर समय रहते कार्य नहीं किया गया तो यह आने वाले समय में उसके पूरे जीवन पर प्रभाव डालेगा।
दोस्तों, जब तक हम कर्म प्रधानता के सूत्र को नहीं समझेंगे, तब तक सकारात्मक मनःस्थिति और मानसिक शांति के विषय में सोचना ही ग़लत है क्योंकि बिना कर्म किए फल की चाह रखना आपके अंदर की ग़लत अपेक्षाओं को जन्म देता है और आप सामान्यतः उस फल को पाने की इच्छा रखने लगते हैं, जिसे पाना असल में आपके हाथ में था ही नहीं। इसके विपरीत अपनी पूरी क्षमताओं के साथ बिना कोई अपेक्षा रखे, अपना सौ प्रतिशत देते हुए कर्म करना आपको शांत रहते हुए अपने लक्ष्य तक पहुँचा देता है। दोस्तों, अगर आप वाक़ई शांति के साथ खुश और सुखी रहते हुए जीवन में कुछ बड़ा करना चाहते हैं तो भगवान कृष्ण द्वारा गीता जी में बताये गए सूत्र 'कर्म किए जा फल की चिंता मत कर’, को अपने जीवन का मूल वाक्य बना लें और इसी के अनुसार जीवन में आगे बढ़ें। फिर देखियेगा किस तरह ईश्वर आपको आपके लक्ष्यों तक पहुँचाता है…
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
nirmalbhatnagar@dreamsachievers.com
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