Dec 16, 2024
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
आइये साथियों आज के लेख की शुरुआत एक कहानी से करते हैं। बात पुरातन काल की है, एक बार चार साधु अपनी धुन में मस्त हो कैलाश पर्वत से होते हुए कहीं जा रहे थे। रास्ते में जब वे शंकर भगवान के समीप से गुज़र रहे तब अपनी मस्ती में मस्त होने के कारण वे भगवान शंकर को प्रणाम करना भूल गए। यह बात माता पार्वती को बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगी और उन्होंने अपनी नाराज़गी को आधार बनाते हुए, उन साधुओं को श्राप दे दिया कि ‘जाओ महावत बन जाओ।’
इस श्राप की वजह से वे चारों साधु हाथी को चलाने वाले महावत बन गए। एक दिन वे चारों महावत अपने-अपने हाथियों पर बैठ कहीं जा रहे थे कि अचानक ही उनका सामना एक बार फिर माँ पार्वती से हो गया। माता पार्वती ने उन्हें रोककर पूछा, ‘बताओ जी आप सब को अब महावत बन कर कैसा लग रहा है?’ चारों साधु लगभग एक साथ ही बोले, ‘बहुत अच्छा लग रहा है।’ उनके अनपेक्षित जवाब से माँ पार्वती थोड़ा सा चौंकी और अपनी बात आगे बढ़ाते हुए बोली, ‘जब तुम लोग साधु थे, तब सब लोग तुम्हारी पूजा किया करते थे। अब हाथी हाँक रहे हो और कह रहे हो ‘हम ख़ुश हैं। हमें बहुत अच्छा लग रहा है।’
माँ पार्वती की बात सुन साधु बोले, ‘इससे क्या फर्क पड़ता है? हमारा तो केवल बाहरी रूप ही बदला है, किसी नाटक में अगर कोई पहले चौकीदार और बाद में राजा बन कर आये तो, उससे असल इंसान को कोई अंतर नहीं पड़ता।’ उनकी बात सुन माँ पार्वती एक बार फिर नाराज हो गई और उन चारों को श्राप देते हुए बोली, ‘जाओ तुम चारों ऊँट बन जाओ।’ अब वे चारों महावत ऊंट बन गए।
कुछ सालों बाद, एक दिन वे चारों ऊँट एक रेगिस्तान में बड़ी मुश्किल से अपनी लम्बी गर्दन को पूरी तरह खींच कर कँटीले पेड़ से पत्तियां तोड़ कर खा रहे थे। तभी माता पार्वती जी वहाँ पहुंची और उनसे प्रश्न करते हुए बोली, ‘अब बताओ ऊंट बन कर कैसा लग रहा है।’ तब वे चारों एक साथ बोले, ‘अब तो और अच्छा लग रहा है। न नहाने की फ़िक्र है, न धोने की। अब तो हम मस्त पत्ते खाते हैं और घूमते हैं।’ उनकी बात सुन माता पार्वती जी सोच में पड़ गई। उनके मन में अब विचार चल रहा था कि ‘ये तो हद हो गयी। मैं इन्हें कुछ भी बना दूँ, इनको कुछ फ़र्क़ ही नहीं पड़ता।' याने इस सब से इनका तो कुछ बिगड़ता ही नहीं है।
उपरोक्त विचार आते ही माता पार्वती कैलाश पर्वत पर विराजित भगवान शंकर के पास जाती है और पूरी घटना उन्हें सुनाते हुए प्रश्न पूछती है, ‘प्रभु वे साधु किस मिट्टी के बने हैं? उनको तो किसी बात की कोई तकलीफ ही नहीं होती। पहले महावत बनाया, फिर ऊंट। पर वे उसके बाद भी कहते हैं कि ‘वे सुखी हैं।’ इस पर भगवान शंकर मुस्कुराते हुए, शांत भाव के साथ बोले, ‘पार्वती! वे सभी साधु आत्मज्ञानी है। वे ख़ुद को शारीरिक रूप में नहीं, बल्कि आत्मा के स्वरूप में देखते हैं। इसलिए उन्हें इस बात से फ़र्क़ नहीं पड़ता कि वे किस शरीर में हैं। असल में वे सभी आत्मज्ञानी हैं।’
बात तो दोस्तों भगवान शिव की जीवन को नई दिशा देने वाली थी। याद रखियेगा, जिस दिन आप और मैं इस दुनिया में आए थे, उसी दिन ईश्वर ने यहाँ से वापस जाने की तारीख़ तय कर दी थी और साथ ही यह भी तय कर दिया था कि अपने कर्मों के सिवा हम यहाँ से कुछ भी वापस नहीं ले जा पायेंगे। इसलिए दोस्तों, भौतिक संसाधनों के फेर में उलझने के स्थान पर इंसान के मूलभूत आचरण को अपनाना और अच्छे कर्म करना हमेशा लाभदायक है। याद रखिएगा, हमारी आत्मा अजर-अमर है और इस जीवन के बाद की हमारी यात्रा, हमारी आत्मा करती है और हमारे कर्म उस अगली यात्रा की दिशा और अगले जन्मों की हमारी दशा तय करते हैं। इसलिए दोस्तों, राजा बनो या कंगाल, अमीर बनो या गरीब, रोगी रहो या पहलवानी करो इससे कुछ बनता या बिगड़ता नहीं है, लेकिन अगर आपने अपना व्यवहार और कर्म बिगाड़ लिए तो यह जन्म ही नहीं आगे की सारी यात्रा बिगड़ सकती है। एक बार विचार कर देखियेगा ज़रूर।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
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