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क्रोध, नफ़रत, घृणा, ईर्ष्या आदि से निपटना हो तो अपनायें यह सूत्र…

  • Writer: Nirmal Bhatnagar
    Nirmal Bhatnagar
  • Oct 26, 2023
  • 3 min read

Oct 26, 2023

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, हम सब यह जानते हैं कि इस दुनिया में हम हमेशा रहने वाले नहीं हैं और ना ही कोई भी रिश्ता हमेशा के लिए रहने वाला है। लेकिन उसके बाद भी जीवन भर अलग-अलग अवस्थाओं में अपेक्षा रखकर हम अपने अमूल्य जीवन को क्रोध, नफ़रत, घृणा, ईर्ष्या आदि में बर्बाद कर देते हैं। अपनी बात को मैं आपको एक कहानी से समझाने का प्रयास करता हूँ-


गाँव के बाहरी इलाक़े में एक बहुत ही पहुँचे हुए संत रहा करते थे, जो भिक्षा में प्राप्त अन्न-जल आदि से अपना जीवन चलाया करते थे। गाँव वाले भी उन संत को अपने मार्गदर्शक या जीवन की उलझनों या दुविधाओं से बचाने वाले गुरु के रूप में देखा करते थे। एक दिन वे संत भिक्षा माँगते-माँगते शहर के सबसे बड़े सेठ के यहाँ पहुँच गये। सेठ ने बड़े आदर-सत्कार के साथ पहले तो संत को भोजन करवाया उसके बाद अच्छे से दान-दक्षिण और अन्न दिया। अंत में सेठ ने संत से हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘महात्मन, एक बड़ी दुविधा में हूँ। अगर आप आज्ञा दें तो क्या मैं आपसे एक प्रश्न पूछ सकता हूँ?’


संत ने मुस्कुराते हुए सेठ से कहा, ‘वत्स, बिलकुल, जो पूछना चाहते हो पूछो।’ सेठ हाथ जोड़ते हुए बोले, ‘महात्मन, लोग लड़ाई-झगड़ा, मान =-अपमान आदि में अपना जीवन क्यों बर्बाद करते हैं?’ संत कुछ पलों के लिए तो एकदम चुप रहे, फिर चिढ़ते हुए थोड़े नाराज़गी भरे स्वर में बोले, ‘यह क्या मूर्खतापूर्ण प्रश्न पूछ रहे हो? मैंने तो सोचा था तुम कोई शास्त्र सम्मत प्रश्न पूछोगे। ज़रा सी भिक्षा देकर तुमने मुझे ख़रीद नहीं लिया है।’


इतना सुनते ही सेठ का ग़ुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया और वह ख़ुद पर नियंत्रण खोते हुए, लगभग चिल्लाते हुए बोला, ‘कैसा संत है रे तू? मैंने तुझे सम्मान दिया; मैंने तुझे दान दिया और तू मुझे मूर्ख ठहरा रहा है? नाहक ही लोग तुझे इतना सम्मान देते हैं।’ इतना कहने पर भी सेठ रुका नहीं, वह काफ़ी देर तक अनाप-शनाप बकता रहा; संत को खूब बातें सुनाता रहा। संत तो संत ही थे। वे चुपचाप खड़े-खड़े मुस्कुराते हुए सेठ की सारी बातें सुनते रहे। उन्होंने एक बार भी पलटकर सेठ को जवाब नहीं दिया। काफ़ी देर बाद जब सेठ का ग़ुस्सा शांत हुआ तो संत मुस्कुराते हुए बोले, ‘सेठ समझ आया कुछ? मिल गया तुम्हें अपने प्रश्न का जवाब? देखो वत्स, जैसे ही मैंने तुम्हें कुछ बुरी या तुम्हारी अपेक्षा के विरुद्ध बातें बोलीं, तुम्हें गुस्सा आ गया। गुस्से में तुम मुझ पर चिल्लाने लगे; चढ़ने लगे। ऐसे में अगर मैं भी क्रोधित हो जाता तो हमारे बीच बड़ा झगड़ा हो जाता।’


बात तो दोस्तों संत की एकदम सही थी और इसीलिए मेरा मानना है कि किसी भी व्यक्ति या स्थिति में अपेक्षा पूर्ण व्यवहार या परिणाम का ना मिलना ही क्रोध, नफ़रत, घृणा, ईर्ष्या आदि नकारात्मक भावों को जन्म देता है और यही नकारात्मक भाव लड़ाई-झगड़े की जड़ बन जाते हैं। जैसा कि उपरोक्त कहानी में सेठ के साथ हुआ था। आप स्वयं सोच कर देखिए, अगर सेठ ने संत से उत्तर की अपेक्षा ना रखी होती तो क्या होता? निश्चित तौर पर सेठ शांत रहता और इसी मानसिक शांति के कारण ख़ुद पर नियंत्रण रख पाता। इसलिए दोस्तों मेरा मानना है कि अपेक्षा ना रखना और प्रतिक्रिया ना देना ही आपको नकारात्मक भावों से बचने का एक रास्ता है। उदाहरण के लिए अगर आप तुलना नहीं करेंगे और अपेक्षा नहीं रखेंगे तो आप सामने वाले की बातों या कार्यों पर प्रतिक्रिया नहीं देंगे; सामने वाला जैसा है, उसे वैसे ही स्वीकारेंगे और जब आप सामने वाले को जैसा है वैसे ही स्वीकारेंगे तो क्रोध नहीं करेंगे और क्रोध नहीं होगा तो अनावश्यक का वाद-विवाद या झगड़ा नहीं होगा। इसलिए दोस्तों, अगर जीवन में सुख-शांति चाहते हैं तो लोगों या स्थितियों से अपेक्षा रखना बंद कीजिए।


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

nirmalbhatnagar@dreamsachievers.com

 
 
 

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