top of page

खोजें ख़ुद को…

Writer: Nirmal BhatnagarNirmal Bhatnagar

Aug 9, 2024

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, दूसरों के लिए तो क्या कहूँ, कई बार ख़ुद को ही लगता है कि ख़ुद के पास, ख़ुद के लिए ही वक़्त नहीं है। जी हाँ दोस्तों, सुनने में अटपटी लगने वाली यह बात मुझे तो लगता है, हम सभी के लिए सटीक है। आज हम सब बाहरी और भौतिक दुनिया में इतने ज़्यादा व्यस्त हो गये हैं कि हमारे पास ख़ुद का ख़्याल रखने के लिए भी समय नहीं है। इस कारण आज हमारी प्राथमिकता में शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य अच्छा रखने से ज़्यादा ज़रूरी बाहरी दुनिया को अच्छा रखना है, जो मेरी नज़र में तो क़तई उचित नहीं है क्योंकि यह सोच हमारे इस दुनिया में होने की वजह पर ही प्रश्न चिन्ह लगाती है।


दोस्तों, महान संत और शानदार गुरु गुरजिएफ, जिन्हें समाज का एक हिस्सा बदमाश संत भी मानता था। जी हाँ दोस्तों, बदमाश, लेकिन संत क्योंकि किसी भी बात को समझाने के उनके तौर-तरीके बड़े उग्र थे। अपनी बात को शिष्यों को समझाने के लिए उन्होंने कई पागलपन भरे प्रयोग किए; कई चालें चलीं। जिन्हें बर्दाश्त करना किसी के लिये भी काफी मुश्किल हो सकता था। जैसे, शिष्यों की उनकी, ख़ुद की महत्ता को समझाने के लिए उन्होंने एक बार तीस शिष्यों को एक बंगले में बंद कर दिया और उसकी चाबी अपने पास रख ली। बंगले से बाहर जाते वक्त उन्होंने अपने शिष्यों को बताया कि ‘यहाँ तुम्हारे लिए भोजन और ज़रूरत के सभी सामान का इंतज़ाम कर दिया है। अब तुम्हें तीन माह तक इसी बंगले कुछ नियमों के साथ रहना है। मैं समय-समय पर यहाँ आता रहूँगा और अगर मुझे कोई मेरे नियमों का उल्लंघन करता हुआ दिखा तो मैं उसे यहाँ से बाहर कर दूँगा। इन तीन महीनों में आप ना तो कुछ पढ़ेंगे, ना कुछ लिखेंगे, ना एक दूसरे से बात करेंगे, ना एक दूसरे को पहचानेंगे और ना ही आपको अपनी आँखों या अपने हावभाव से उन्हें इस बात का एहसास होने देना है कि आपको उनकी मौजूदगी का एहसास है। तुम इस बंगले में ऐसे रहोगे जैसे यहाँ तुम अकेले ही हो, बाक़ी उनतीस लोग यहाँ है ही नहीं। अगर कोई तुम्हारे सामने से निकल रहा है, तो उसे निकल जाने देना। तुम जरा भी मत सोचना कि तुम्हारे सामने से कोई जा रहा है। बिलकुल वैसे ही जैसे हवा के चलते वक़्त होता है। अगर कोई नमस्कार भी करे तो नमस्कार मत करना, क्योंकि कोई है ही नहीं यहां जिसको तुम नमस्कार कर रहे हो। आंख से भी मत पहचानना कि तुम हो, मुस्कुराना भी मत, भाव भी मत प्रकट करना और याद रखना जो आदमी इस तरह के भाव प्रकट करेगा, उसे मैं बाहर निकाल दूंगा।’


अगले पंद्रह दिनों में निरीक्षण के दौरान गुरजिएफ ने तीस में से सत्ताईस लोगों को वहाँ से बाहर कर दिया। अब उस बंगले में मात्र तीन लोग रह गये थे जिनमें से एक रुस के गणितज्ञ आस्पेंस्की भी थे। उन्होंने इस प्रयोग के पूरा होने के बाद लिखा था कि ‘पहले पंद्रह दिन वाक़ई बहुत कठिनाई भरे थे। होते हुए भी दूसरे को न मानना इतना कठिन होगा, कभी सोचा ही नहीं था। दूसरे की उपस्थिति को स्वीकार करने का मन में इतना भाव हो सकता है, इसका एहसास ही नहीं था। यह वक़्त वाक़ई बड़ा था, लेकिन संघर्ष और संकल्प से, पंद्रह दिन में वह सीमा पार हो गई और दूसरे का खयाल बंद हो गया और जिस दिन दूसरों ख़्याल बंद हुआ उस दिन पहली बार अपना ख़्याल आना शुरू हुआ।’


गुरजिएफ के प्रयोग का परिणाम तो वाक़ई ज़बरदस्त था। जब तक हमारे अंदर दूसरे का ख़्याल है, तब तक अपना ख़्याल होना संभव नहीं है। बात बड़ी सीधी सी है जब तक जगह ख़ाली नहीं है, तब तक दूसरी चीज अंदर नहीं आ सकती। इसी बात को अध्यात्म में यह कहते हुए बताया है कि ‘हम लोग चौबीस घंटे अनात्म-स्मरण करते हुए बीच में आत्म स्मरण करना चाहते हैं, जो संभव नहीं है।’ इसी बात को समझाते हुए ओस्पेंस्की ने लिखा था, ‘इस प्रयोग के पहले मैं ‘सेल्फ रिमेम्बरिंग’ का मतलब ही समझ नहीं पाया था। मैंने इसके पहले भी ख़ुद को याद याने प्राथमिकता में रखने की बहुत कोशिश की थी, लेकिन कभी सफलता नहीं मिली। इन पंद्रह दिनों में जब ‘दूसरे का ख़्याल’ अंदर से विदा हो गया, याने जब अपने अंदर जगह ख़ाली हो गई, तब ख़ुद का स्मरण करने के अलावा और कुछ बचा ही नहीं। इस प्रयोग के कारण मैं पहली बार ख़ुद के प्रति सचेत था। इसलिए जब सोलहवें दिन मैं उठा, तब ऐसे उठा, जैसा मैं पहले कभी नहीं उठा था। पहली बार मुझे ख़ुद का बोध था और तब मुझे ख़्याल आया कि अभी तक मैं दूसरे के बोध में उठता था। सुबह उठते ही दूसरे की याद शुरू हो जाती थी। लेकिन अब अपना बोध चौबीस घंटे घेरे रहने लगा क्योंकि अब दूसरे के लिए जगह ही नहीं थी।’


एक महीना पूरा होते-होते ओस्पेंस्की को हैरानी होने लगी थी क्योंकि अब उन्हें इस बात का भी एहसास नहीं रहता था कि बाहर एक और संसार है, बाज़ार है और लोग भी हैं। अब तो उन्हें दिन बीतने का भी एहसास नहीं रहता था, सभी सपने विलीन हो गये थे और सपनों के विलीन होने के कारण उन्हें रात में भी ख़ुद का स्मरण रहने लगा। अब उन्हें लगता था कि मैं रात को सोने के बाद भी जागा हुआ हूँ।


तीन माह पूरे होने के तीन दिन पहले गुरजिएफ उस बंगले में आए और ओस्पेंस्की ने उन्हें देखा। उस दिन उन्हें पहली बार एहसास हुआ कि गुरजिएफ कैसे अद्भुत आदमी हैं। दोस्तों, इसकी मुख्य वजह अंतर्मन का ख़ाली होना था। अब ओस्पेंस्की उन्हें खुले दिल और नज़र से देख सकते थे; उनके अपने साथ होने को अपना सौभाग्य मान सकते थे। इसलिए ओस्पेंस्की ने इस विषय में लिखा था कि ‘मैंने उस दिन पहली दफ़ा गुरजिएफ को ख़ाली मन से देखा था, उस दिन मैंने जाना था कि गुरजिएफ कौन हैं? उस दिन, कुछ पलों बाद, गुरजिएफ मेरे सामने आकर बैठ गये, तभी मुझे एकदम से सुनाई पड़ा, ‘आस्पेंस्की... पहचाना मुझे?’ तो मैंने चारों तरफ चौंक कर देखा, गुरजिएफ चुप बैठे थे। इसमें कोई शक नहीं था कि आवाज तो गुरजिएफ की ही थी। फिर भी मैं चुप बैठा था। तभी एक और आवाज़ आई, ‘आस्पेंस्की, मुझे पहचाना नहीं? सुना नहीं? तब आस्पेंस्क्सी ने चौंक कर गुरजिएफ की तरफ देखा, वे बिलकुल चुप बैठे थे। उनके मुँह से एक शब्द भी नहीं निकल रहा था। तब गुरजिएफ खूब मुस्कुराने लगे और बोले, ‘अब शब्द की कोई जरूरत नहीं, अब बिना शब्द के बात हो सकती है। अब तू इतना चुप हो गया है कि अब मैं न बोलूं तब भी तू सुनेगा? अब तो मैं भीतर सोचूं और तू सुन लेगा क्योंकि जितनी शांति है, उतनी सूक्ष्म तरंगें पकड़ी जा सकती हैं।’


दोस्तों, अब तो आप निश्चित तौर पर समझ गये होगा कि जब तक हम जीवन में शांति नहीं लायेंगे तब तक इस दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति याने ख़ुद से नहीं मिल पायेंगे। तो आइए दोस्तों ख़ुद को शांत करके, ख़ुद की खोज में निकलते हैं…


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर


 
 
 

Comments


bottom of page