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Writer's pictureNirmal Bhatnagar

ख़ुद को ख़ुद से बेहतर बनाना हो तो अपनाएँ यह सूत्र…

June 19, 2024

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, हम कितने भी बेहतर क्यों ना बन जाएँ, हम में सुधार की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है। इसलिए आलोचना को ग़ुस्से या उदासी के बिना, खुले मन से पूर्ण गंभीरता के साथ स्वीकारना हमेशा लाभप्रद रहता है। मेरी नज़र में तो यह ख़ुद को सुधारने का सर्वोत्तम तरीक़ा है। अपनी बात को मैं आपको एक कहानी से समझाने का प्रयास करता हूँ।


बात कई साल पुरानी है गाँव के बाहरी इलाक़े में एक बहुत ही प्रसिद्ध चित्रकार रहा करता था। लोग दूर-दूर से उसकी चित्रकारी को देखने, उसे अच्छे दामों पर ख़रीदने के लिए आया करते थे। इस कार्य से वह चित्रकार अच्छा ख़ासा कमा लिया करता था। जैसा कि सामान्यतः देखा जाता है, चित्रकार के बेटे को भी चित्रकारी में बहुत मज़ा आता था। इसलिए चित्रकार ने उसे भी व्यवस्थित तरीक़े से चित्रकारी करना सिखा दिया। पिता बेटे को अच्छी चित्रकारी करता देख बहुत खुश हुआ करता था। लेकिन साथ ही उसकी हर कलाकृति में कुछ ना कुछ कमियाँ निकाल दिया करते थे और उससे कहते थे, ‘बेटा, वैसे तो तुमने यह चित्र बहुत सुंदर बनाया है। लेकिन अगली बार तुम इस कमी को मत दोहराना। बेटा भी पिता की सलाह को सर आँखों पर लेता था और उनके बताए हर सुझाव पर तुरंत अमल किया करता था।


इस लगातार सुधार की वजह से, कुछ ही दिनों में बेटा अपने पिता से भी अच्छी चित्रकारी करने लगा और एक दिन ऐसा भी समय आया जब लोग बेटे के चित्र को पिता के चित्रों के मुक़ाबले ज़्यादा दाम पर ख़रीदने लगे। लेकिन पिता अभी भी बेटे की चित्रकारी में कुछ ना कुछ कमियाँ निकाल ही दिया करते थे, पर अब बेटे को यह अच्छा नहीं लगा करता था। वह अब बड़े अनमने मन से पिता के सुझाव को स्वीकारा करता था और अपनी चित्रकारी में उसे सुधार लिया करता था।


समय के साथ बेटे की ख्याति और उसकी कला की क़ीमत बढ़ती जा रही थी, जबकि पिता के द्वारा बनाए गए चित्र अभी भी पूर्व के ही दाम पर बिक रहे थे। इसे देख एक दिन बेटे के सब्र का बांध टूट गया और उसने अपने पिता को एक दिन कह दिया, ‘पिताजी, आप तो मेरे हर चित्र में ऐसे कमियाँ निकालते हैं, जैसे, आप कोई बहुत बड़े चित्रकार हैं। अगर आपको चित्रकारी की इतनी समझ होती, तो आपके बनाए चित्र कम क़ीमत में नहीं बिकते। मुझे नहीं लगता कि अब मुझे आपकी सलाह की ज़रूरत है। मेरी चित्रकारी सर्वोत्तम है।’


पिता ने मुस्कुरा कर बेटे की बात को स्वीकारा और उसी दिन से उसे सलाह देना बंद कर दिया। कुछ महीनों तक तो वह लड़का बहुत खुश रहा लेकिन जल्द ही उसने महसूस किया कि अब लोग उसकी चित्रकारी की उतनी तारीफ़ नहीं करते हैं जितनी पहले किया करते थे और अब उसके बनाए चित्रों के दाम बढ़ना भी बंद हो गए हैं। कई दिनों तक वह जब इसका कारण जान नहीं पाया तो अपने पिता के पास गया और उन्हें विस्तार से इस समस्या के बारे में बताया। काफ़ी देर तक शांति से उसकी बात सुनने के बाद पिता ने उसे बताया कि वह पहले से ही जानते थे कि एक दिन ऐसा भी आएगा। बेटे ने बड़े आश्चर्य मिश्रित स्वर में कहा, ‘पिताजी क्या आप वाक़ई जानते थे कि मेरे साथ ऐसा होने वाला है?’


पिता ने हाँ में सर हिलाते हुए कहा, ‘हाँ बेटा क्योंकि ऐसे ही हालातों और स्थिति का सामना कई साल पहले मैंने भी किया था।’ बेटा उसी पल बोला, ‘फिर आपने मुझे समझाया क्यों नहीं?’ पिता गंभीर स्वर में बोले, ‘क्योंकि उस समय तुम्हारे अंदर अहंकार आ गया था और तुम कुछ भी सीखने के लिए राज़ी नहीं थे। मुझे भी पता है कि मैं तुम्हारी जितनी अच्छी चित्रकारी नहीं करता हूँ। यह भी संभव है कि मेरे द्वारा दी गई सलाह तुम्हारे किसी भी काम की ना हो; वह पूरी तरह ग़लत हो और मेरी सलाह की वजह से आज तक कोई भी चित्र अच्छा ना बना हो। लेकिन जब मैं तुम्हें तुम्हारी कमियाँ बताता था, तब तुम भी अपने बनाए चित्रों से संतुष्ट नहीं होते थे और उसे बहुत बारीकी से देख कर कमियाँ खोजा करते थे और फिर उन्हें सुधारा करते थे। यह प्रक्रिया तुम्हें रोज़ और बेहतर करने के लिए प्रेरित किया करती थी। दिन-प्रतिदिन ख़ुद से और बेहतर बनने का यह प्रयास तुम्हारी कामयाबी की मुख्य वजह था। लेकिन जिस दिन तुम अपने कार्य से संतुष्ट हो गए और तुमने यह स्वीकार लिया कि अब मैं सर्वोत्तम हूँ; अब मुझमें सुधार की कोई और गुंजाइश नहीं है, तबसे तुम्हारा विकास रुक गया और तुम्हारे चित्रों की तारीफ़ होना बंद हो गई। तुम्हारे चित्रों का मूल्य भी बढ़ना बंद हो गया।’


बेटा कुछ पलों के लिए शांत रहा, फिर प्रश्न पूछता हुआ बोला, ‘अब आपके हिसाब से मुझे क्या करना चाहिए?’ पिता ने एक लाइन में जवाब दिया, ‘अपने हुनर से असंतुष्ट होना सीख लो, मान लो कि तुम में हमेशा बेहतर होने की गुंजाइश बाकी है। यही एक बात तुम्हें हमेशा आगे बेहतर होने के लिए प्रेरित करती रहेंगी और तुम्हें हमेशा बेहतर बनाती रहेगी।’


बात तो दोस्तों चित्रकार पिता की एकदम सटीक थी। इसीलिए हमेशा कहा जाता है, ‘किसी भी क्षेत्र में पूर्णता प्राप्त करना संभव नहीं है। इंसान में सुधार की संभावना हमेशा बनी रहती है। इसलिए दोस्तों आलोचनाओं और सुझावों को समान रूप से सम्मान देना ही आपके अंदर आवश्यक परिवर्तन लाता है और आप हर दिन; हर पल उन्नति की राह पर आगे बढ़ते हुए ख़ुद को ख़ुद से बेहतर बनाते जाते हैं।


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

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