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गुरु बिन ज्ञान कहाँ…

Writer's picture: Nirmal BhatnagarNirmal Bhatnagar

July 22, 2024

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, गुरु कृपा के बिना इस जीवन में ज्ञान, ईश्वर सहित कुछ भी पाना असंभव ही है। जब इस बात का भान संत कबीर को हुआ तो उन्होंने काशी के एक पहुँचे हुए संत रामानन्द जी को गुरु बनाने का निर्णय लिया, जो उच्च कोटि के महापुरुष माने जाते थे। लेकिन कबीर जी के सामने सबसे बड़ी समस्या उस वक़्त प्रचलित जात-पात, ऊँच-नीच का डर था, जिसके कारण वे गुरु के पास दीक्षा लेने नहीं जा पा रहे थे। काफ़ी विचार करने के बाद कबीर जी संत रामानन्द जी के आश्रम पहुँचे और आश्रम के मुख्य द्वार पर खड़े होकर विनती करने लगे कि ‘मुझे गुरुजी के दर्शन कराओ!’


जात-पात, ऊँच-नीच का डर और काशी के माहौल याने पंडित और पंडों के अत्यधिक प्रभाव के कारण किसी ने कबीरदास जी की विनती पर ध्यान नहीं दिया। कबीरदास जी इससे व्यथित नहीं हुए, उन्होंने तरकीब से गुरु दीक्षा लेने की योजना बनाई और इसके लिए सुबह तीन से चार बजे के मध्य का समय चुना जब गुरुजी गंगा स्नान के लिए ज़ाया करते थे। कबीरदास जी ने गंगा जी के घाट जाने के रास्ते में एक जगह सुखी लकड़ी और झाड़ियों से बाड़ बनाकर रास्ते को सँकरा कर दिया। जिससे जब संत रामानन्द जी गंगा स्नान के लिए जाएँ तब खड़ाऊँ से होने वाली टप-टप की आवाज़ से कबीरदास जी को उनके आने का एहसास हो जाए।


अगले दिन सुबह हल्की रोशनी में जब संत रामानन्द जी गंगा स्नान के लिए निकले, तब खड़ाऊँ से होने वाली टप-टप की आवाज़ से कबीर दास जी को जैसे ही उनके आने का एहसास हुआ, तब वे झाड़ियों द्वारा बनाए गए संकरे मार्ग पर गंगा घाट की सीढ़ियों पर जाकर लेट गये। जैसे ही रामानन्द जी महाराज ने सीढ़ियाँ उतरना शुरू किया, उनका पैर कबीरदास जी से टकरा गया और उनके मुँह से राम-राम निकला। जिसे सुन कबीर जी एकदम खुश हो गये क्योंकि उनका काम तो बन गया था क्योंकि उन्हें गुरुजी के दर्शन भी हो गए, उन्हें गुरु की पादुकाओं का स्पर्श भी मिल गया और गुरुमुख से राम नाम का मंत्र भी मिल गया था। अब गुरु से दीक्षा लेने में बाकी ही क्या रहा!


खुश कबीरदास जी नाचते-गाते, गुनगुनाते अपने घर लौट गये। अब वे हर पल प्रेमपूर्वक हृदय से गुरुमंत्र का जप करते, गुरु नाम का कीर्तन करते, साधना करते और अपना पूरा दिन इसी तरह बिताते। अर्थात् यह सब अब उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन गया था। इस कारण हालात यह हो गये थे कि जो भी उनसे मिलने पहुंचता वह उनके गुरु के प्रति समर्पण और राम नाम के जप से भाव-विभोर हो उठता। जल्द ही यह बात पूरी काशी में फैल गई और पंडितों के बीच चर्चा का विषय बन गई। वे सब जानना चाहते थे कि यवन पुत्र कबीर किससे दीक्षा प्राप्त करने के बाद राम नाम जपता है, रामानंद के नाम का कीर्तन करता है! उनका मानना था कि गैर सनातनी को राम नाम का मंत्र देकर, उस व्यक्ति ने मंत्र को ही भ्रष्ट कर दिया है। इसीलिए वे जानना चाहते थे कि यवन को राम नाम की दीक्षा किसने और क्यों दी? सभी ग़ुस्साए पंडित एकत्र हो कबीर के पास गये और उनसे पूछा कि तुम्हें राम नाम की दीक्षा किसने दी? तो कबीर दास ने संत श्री रामानंद जी का नाम लिया। जब उनसे पूछा गयी कि उन्हें दीक्षा कहाँ दी गई थी तो उन्होंने गंगा घाट बता दिया।


सभी ग़ुस्साए लोग अब संत श्री रामानन्द जी के पास पहुँचे और उनसे बोले, ‘गुरु जी, आपने एक यवन को राम मंत्र की दीक्षा देकर मंत्र को ही भ्रष्ट कर दिया है। बताइए महाराज, आपने ऐसा क्यों किया?’ इस पर संत रामानन्द जी बोले, ‘मैंने तो किसी को दीक्षा नहीं दी।’ इसपर सभी पंडित आश्चर्यचकित हो बोले, ‘गुरुजी लेकिन कबीर जुलाहा तो हर पल ‘रामानन्द… रामानन्द… मेरे गुरुदेव रामानन्द…’ की रट लगाकर नाचता है। इसका अर्थ हुआ वो आपके नाम को बदनाम कर रहा है।’


रामानन्द जी महाराज ने तुरंत कबीर को बुलाया और उससे दीक्षा के बारे में पूर्ण सच्चाई के साथ बताने के लिए कहते हुए पूछा, ‘मैंने तुम्हें दीक्षा कब दी? मैं कब तुम्हारा गुरु बना?’ इसपर कबीरदास जी रामानन्द जी को पूर्व में घटी घटना को याद दिलाते हुए बोले, ‘गुरुजी, उस दिन प्रातः गंगा घाट की सीढ़ियों पर आपने मुझे अपनी चरण पादुका का स्पर्श कराया और राम मंत्र दिया।’ रामानन्द जी महाराज को उस वक़्त पूरी बात याद नहीं आई, इसलिए वे ग़ुस्सा हो गये और क्रोध के साथ गरजते हुए बोले, 'मेरे सामने झूठ बोलते हो, मैंने कब तुम्हें दीक्षा दी?’ इतना ही नहीं उन्होंने कबीरदास जी को झूठा और चालाक व्यक्ति जानकर, सच बोलने का भय दिखाते हुए अपनी खड़ाऊ दे मारी। इस पर कबीरदास जी चहकते हुए बोले, ‘गुरुदेव! माना की तब की दीक्षा झूठी, लेकिन अबकी तो सच्ची!’ मुख से राम नाम का मंत्र भी मिल गया और सिर में आपकी पावन पादुका का स्पर्श भी हो गया।’


स्वामी रामानंद जी उच्च कोटि के संत-महात्मा थे। घड़ी भर में भीतर गोता लगाया और एकदम शांत हो गए। उसके बाद वहाँ सभा में उपस्थित सभी लोगों से बोले, ‘चलो, यवन हो या कुछ भी हो, मेरा पहले नंबर का शिष्य यही है। इसने गुरु से दीक्षा पाने के लिए जो प्रयत्न किया है, वह इसकी साफ नियत दिखाता है। इसके मन में कोई पाप नहीं।’ बस, इस तरह रामानंद जी ने कबीरदास जी को अपना शिष्य बना लिया…


दोस्तों, इस गुरुपूर्णिमा को मैं आप से इतना ही कहना चाहूँगा कि गुरु को खोजना और मिलने पर उन्हें अपना बनाने का जतन साफ़ दिल से करना हमारा कार्य है और दोस्तों, जब आपको गुरु मिल जायें, तब आप कबीरदास जी की तरह, बिना शर्त स्वयं को उनके समक्ष पूरी तरह समर्पित कर दीजियेगा। यक़ीन मानियेगा, गुरु आपको बिना तकलीफ़ इस भवसागर से पार लगा देंगे। गुरुपूर्णिमा की शुभकामनाओं के साथ…


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

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