Nov 15, 2022
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
दोस्तों, जीवन में कहानियों का अपना एक अलग महत्व है। यह हमें मज़े-मज़े में ही ज़िंदगी जीने की कला सिखा जाती है। आज मैं आपको महाभारत से ली हुई ऐसी ही एक कहानी से रूबरू करवाता हूँ, जिसे मैंने सुना तो बचपन में था लेकिन उसका अर्थ या यूँ कहूँ उस कहानी का मर्म 45 वर्ष की आयु के लगभग समझ पाया। लेकिन कहानी सुनाने से पहले मैं आपको अपने साथ घटी घटना सुनाता हूँ। बात वर्ष 2010 की है जब मैंने मोटिवेशनल स्पीकर के रूप में कार्य करना प्रारम्भ ही किया था। गरिमामय और जीवन को बदल देने वाले इस पेशे में जब मुझे शुरुआती सफलताएँ मिलना शुरू हुई तो मेरे मन में अहंकार और अभिमान ने जन्म लेना शुरू कर दिया। वैसे इसकी दो मुख्य वजह थी, पहली, यह सफलता मुझे एक बड़ी विफलता के बाद मिलना शुरू हुई थी और दूसरी बात, मैंने अपनों से जो कहा था, वह पाना शुरू कर दिया था।
उसी दौरान एक सफल ट्रेनिंग सेशन लेने के बाद मुझे सभी प्रतिभागियों के साथ-साथ अपने गुरु से भी काफ़ी उत्साहवर्धक फ़ीडबैक मिला। मेरे जीवन का यह पहला मौक़ा था जब मेरे गुरु ने मेरे प्रेज़ेंटेशन पर इतनी सकारात्मक और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया दी थी। जिसकी वजह से मैं तुरंत ही सातवें आसमान पर पहुँच गया था और मेरे अंदर ‘देख लिया मैं क्या कर सकता हूँ! ’, वाले भाव ने जन्म ले लिया था। मेरे गुरु मेरी इस स्थिति को तुरंत भाँप गए और मुझे जल्द ही इस बात का एहसास करवाया कि ताली के पीछे गाली और गाली के पीछे ताली, इंतज़ार कर रही होती है। इसलिए हमें ना तो तालियों में बहना है और ना ही गालियों से टूटना है।
इस घटना को कुछ ही दिन बीते होंगे कि मेरे द्वारा अपने समकक्ष और समकालीन ट्रेनर पर अवांछित प्रतिक्रिया दे दी गई, जिसे आज, मैं खुद भी, कहीं से भी उचित नहीं ठहरा सकता हूँ। असल में साथियों, उस वक्त कुछ समय के लिए मेरे ऊपर श्रेष्ठता का अभिमान चढ़ गया था और गाहे बगाहे वह मेरे व्यवहार में भी नज़र आने लगता था। अपनी स्थिति और उसके समाधान को मैं आपको महाभारत काल के उसी संस्मरण से समझाने का प्रयास करता हूँ-
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि दुनिया के श्रेष्ठ धनुर्धरों की बात की जाए तो अर्जुन और कर्ण का नाम ही सबसे पहले लिया जाता है। अर्जुन और कर्ण दोनों ही अपनी प्रतिभा को साबित करने या खुद को सर्वश्रेष्ठ बताने का कोई भी मौक़ा कभी ख़ाली नहीं जाने देते थे। इसीलिए दोनों के बीच एक अघोषित प्रतिस्पर्धा स्पष्ट तौर पर देखी जाती थी। वैसे दोस्तों, यहाँ मेरे कहने का अर्थ प्रतिभा के अनावश्यक प्रदर्शन से बिलकुल भी नहीं है और ना ही यह कोरे अहंकार या ‘मैं’ के भाव के कारण था।
ऐसी ही प्रतिस्पर्धा इन दोनों में महाभारत के युद्ध के दौरान भी देखने को मिली थी। एक दिन जब अर्जुन और कर्ण में भीषण युद्ध चल रहा था तब अर्जुन की कमान से निकले तीर कर्ण के रथ को काफ़ी पीछे तक धकेल रहे थे; उसी दौरान कर्ण के तीर भी अर्जुन के रथ को कुछ फ़ीट पीछे धकेल रहे थे। उस वक्त भगवान कृष्ण, जो अर्जुन के सारथी थे, ने कर्ण की तारिफ़ करना शुरू कर दिया, जो अर्जुन को अच्छा नहीं लगा। उस दिन का युद्ध खत्म होने के बाद अर्जुन भगवान कृष्ण से अपना असंतोष, अपना ग़ुस्सा ज़ाहिर करते हुए बोले, ‘हे वासुदेव! , मेरे साथ यह पक्षपात क्यूँ? क्या आपको मेरा पराक्रम नहीं दिखता? आपने आज दिन भर मेरे रथ को मात्र सात कदम पीछे धकेलने वाले कर्ण की तारीफ़ करी है। जबकि मैंने उसके रथ को कई बार इससे कई गुना ज़्यादा पीछे धकेला था। अर्जुन की बात सुन कृष्ण मुस्कुराए और बोले, ‘वत्स! , तुम भूल रहे हो कि तुम्हारे रथ में स्वयं महावीर हनुमान और मैं विराजमान हूँ। उसके बाद भी कर्ण तुम्हारे रथ को सात कदम पीछे धकेल रहा था। अगर आज के युद्ध में हम दोनों ना होते तो तुम्हारे रथ का अभी अस्तित्व भी नहीं होता। इस रथ को सात कदम भी पीछे हटा देना कर्ण के महाबली होने का परिचायक हैं।’
भगवान कृष्ण की बात सुन अर्जुन को तुरंत अपनी गलती का एहसास हो गया। हालाँकि इस स्थित को अर्जुन युद्ध के अंतिम दिन और बेहतर तरीके से समझ पाए जब भगवान श्री कृष्ण ने सारथी धर्म के विरुद्ध जा पहले अर्जुन को रथ से उतरने का कहा। अर्जुन के रथ से उतरने और कुछ दूर जाने के पश्चात भगवान श्री कृष्ण एवं महावीर हनुमान भी उस रथ से नीचे उतरे और उन दोनों के उतरते ही अर्जुन का रथ जल कर भस्म हो गया। अर्जुन को आश्चर्यचकित देख भगवान कृष्ण बोले, ‘पार्थ, तुम्हारा यह रथ तो भीष्म, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य व कर्ण जैसे योद्धाओं के दिव्यास्त्रों से कभी का नष्ट हो चुका था। वह तो सिर्फ़ मेरा संकल्प था जिसकी वजह से इसने अंत तक तुम्हारा साथ दिया।’ भगवान कृष्ण की वाणी से सच्चाई सुन, अपनी श्रेष्ठता के मद में चूर अर्जुन का अभिमान चूर-चूर हो गया था।
महाभारत का प्रसंग याद आते ही मुझे भान हो गया कि मैं तो सिर्फ़ एक प्यादा हूँ जिसे ईश्वर अपनी योजना के मुताबिक़ आगे बढ़ा रहा है। वह चाहता है, इसलिए सब हो रहा है। इसलिए साथियों अहंकार, घमंड, मैं के भाव को छोड़ देना ही उचित है। यह तीनों जीवन में सिर्फ़ कष्ट ही देते हैं। लेकिन हाँ साथियों, हमें अपने स्वाभिमान के लिए तो लड़ते ही रहना है और जीवन में आगे बढ़ना है।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
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