Oct 03, 2022
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
दोस्तों, अक्सर लोगों को आपने सुख और दुःख के बीच झूला झूलते हुए देखा होगा। अर्थात् फ़लाँ चीज़ हो गई, तो खुश और नहीं हुई, तो दुखी। ऐसे लोग अक्सर इस छोटी सी बात को समझ नहीं पाते हैं कि अगर उनकी प्रसन्नता परिस्थितिजन्य होगी तो वो अस्थायी ही होगी। इसीलिए तो महान विचारक पंडित श्री राम शर्मा आचार्य ने कहा है, ‘निःसंदेह वह मनुष्य बहुत ही दयनीय है जो प्रिय परिस्थिति में तो प्रसन्न व सुखी रहता है और अप्रिय परिस्थिति में आँसू बहाता है।’
बात तो बिलकुल सही है क्यूँकि जीवन अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच ही तो चलता है। अर्थात् ना तो अनुकूलता स्थायी है और ना ही प्रतिकूलता। प्रसन्नता के पहले हम विपरीत परिस्थितियों या चुनौतियों से परेशान थे और जब यह विपरीत परिस्थितियाँ या चुनौतियाँ दूर हो जाती हैं, तब हमें सुख या प्रसन्नता प्राप्त होती है। इसलिए दुखद स्थिति अर्थात् विपरीत परिस्थितियों या चुनौतियों के बीच रोना क्यों? दुःख के बाद सुख और सुख के बाद दुःख यही तो इस संसार का कभी ना बदलने वाला नियम है। यह ना तो पहले कभी बदला गया है और ना ही बाद में कभी बदला जा सकेगा।
इसका अर्थ हुआ कि अगर हमें हर हाल में सुखी या खुश रहना है तो हमें इस नियम को स्वीकारते हुए उससे ऊपर उठकर जीवन जीना सीखना होगा। अर्थात् हमें प्रतिकूल परिस्थिति में दुःख और अनुकूल परिस्थिति में खुश रहने की द्वंद्वात्मक स्थिति को अस्वीकार कर, जीवन जीना सीखना होगा। वैसे साथियों, इसे सीखना कहना भी ग़लत होगा क्यूँकि यह तो हम सभी को पहले से ही आता है। ज़रा बड़े से बड़ी चुनौतीपूर्ण विपरीत परिस्थिति या भयानक से भयानक दर्दनाक स्थिति या दुःख के पल को याद करके देखिएगा, उस स्थिति में रहते हुए भी कोई ना कोई पल ऐसा होगा जब आप क्षणभर के लिए खुश या प्रसन्न रहे होंगे, सही है ना! इसे ही दूसरे शब्दों में कहाँ जाए तो आपने उस एक पल या एक क्षण के लिए सब कुछ भुलाकर शांतिपूर्ण स्वाभाविक स्थिति में आ, उस पल या जीवन को जिया था।
दोस्तों, सोचकर देखिएगा जब इतने कठिन पलों या बुरी स्थिति में भी हम एक पल या एक क्षण के लिए सब कुछ भूलकर शांति, सुख या प्रसन्नता का अनुभव कर सकते हैं, तो इस समय को बड़ा क्यों नहीं सकते? निश्चित तौर पर यह हमारे हाथ में है बस हमें सचेत मन से इसे स्वीकारना होगा और खुद को बार-बार याद दिलाना होगा कि ना तो दुःख हमें हर समय पकड़े रहता है और ना उसमें ऐसी कोई शक्ति होती है कि हमारी स्वीकृति के बिना वह हमें दुखी या परेशान कर सके, हमारी प्रसन्नता छीन सके। अगर ऐसा होता तो हम अपने जीवन में पूर्व में आए दुखों से कभी मुक्त ही नहीं हो पाते, जीवन भर एक ही दुखद स्थिति में तड़पते रहते, दुःख के बाद कभी सुख, शांति, प्रसन्नता का अनुभव कर ही नहीं पाते।
लेकिन ऐसा होता नहीं है साथियों, दुखद परिस्थितियाँ, चुनौतियाँ, विपरीत परिस्थितियाँ आती भी हैं, हमें परेशान भी करती हैं, हमारा सुख-चैन भी छीनती हैं और कुछ दिन में ठीक भी हो जाती हैं अर्थात् स्थितियाँ सामान्य हो जाती हैं। इसका सीधा-सीधा अर्थ हुआ कि सुख-दुःख का अपना कोई अस्तित्व नहीं होता। हम इन्हें अपने मन में जन्म देते हैं। दूसरे शब्दों में कहूँ तो दुःख-सुख, वेदना-ख़ुशी का होना या ना होना हमारी स्वीकृति-अस्वीकृति पर निर्भर करता है। जिस परिस्थिति को हम दुखद रूप में स्वीकारते हैं, वह हमें दुःख देती है और जिन परिस्थितियों को हम सुखद रूप में स्वीकारते हैं, वह हमें सुख देती है।
आईए दोस्तों, अंत में इसे मैं आपको एक उदाहरण से समझाता हूँ। मान लीजिए आप गाड़ी से कहीं जा रहे हैं और रास्ते में आपका ऐक्सिडेंट हो जाता है। ऐक्सिडेंट का होना आपको दुःख, परेशानी या नकारात्मक मनोभाव की स्थिति में ले जाता है और आप दुखी हो जाते हैं। लेकिन उसी वक्त आपका कोई साथी आपको याद दिलाता है कि इतने बड़े ऐक्सिडेंट जिसमें आपकी गाड़ी पूरी तरह खत्म हो गई है आप पूरी तरह सुरक्षित हैं, आपको खरोंच भी नहीं आई है। इस स्थिति को यादकर आप ईश्वर का धन्यवाद देते हैं और खुश हो जाते हैं। दोस्तों, घटना, स्थिति-परिस्थिति एक ही थी लेकिन आपकी मनःस्थिति ने उसके प्रभाव को सुख या दुःख में बदल दिया था। इसका सीधा-सीधा अर्थ हुआ, दुःख या सुख हमारे मन के खिलौने हैं, हम किससे खेलना चाहते हैं यह निश्चित तौर पर हमारे हाथ में है। तो आइए दोस्तों, आज से अपने लिए सुख, प्रसन्नता, ख़ुशी और शांति को चुनते हैं और इस जीवन का पूरा-पूरा लुत्फ़ उठाते हैं।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
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