Feb 6, 2024
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
दोस्तों, मैं पहले भी कई बार आपसे साझा कर चुका हूँ कि जीवन में सफलता प्रतिभा की अपेक्षा दृष्टिकोण पर अधिक निर्भर करती है। हाल ही में इसका एक उदाहरण मुझे एक विद्यालय में देखने को मिला। पूरी घटना कुछ इस प्रकार थी, एक विद्यालय ने अपना कामकाज सुचारू रूप से चलाने और शिक्षा का स्तर और ज़्यादा बेहतर बनाने के उद्देश्य से एक अनुभवी प्राचार्य को नियुक्त किया। नियुक्ति पश्चात उन प्राचार्य ने काफ़ी तेज़ी से काम करते हुए पहले ही सप्ताह में विद्यालय की कमियों को पहचाना, उसे दूर करने के लिए योजना बनाई, योजना के अनुरूप संसाधन जुटाए, इसके पश्चात अपनी टीम को उनके रोल समझाते हुए उस पर काम करना शुरू किया।
अच्छी शुरुआत के पश्चात ना सिर्फ़ प्राचार्य अपितु विद्यालय संचालक मंडल भी अच्छे परिणाम के प्रति आशान्वित था। लेकिन अंतिम परिणाम सभी की आशा के विपरीत आया। जब इस विषय में संचालक मंडल ने प्राचार्य से बात करी तो उन्होंने स्टाफ़ की कमियों को गिनाते हुए उन्हें अक्षम करार दे दिया। इसके पश्चात दिनोंदिन स्टाफ़ और प्राचार्य के बीच दूरियाँ बढ़ने लगी और साथ ही स्थितियाँ गंभीर होती गई, जिसके कारण अंत में प्राचार्य को मात्र दो माह बाद ही अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ गया।
त्यागपत्र देने के पश्चात प्राचार्य मेरे पास आए और बोले, ‘सर, मेरा अनुभव है कि उत्तर भारत के विद्यालय अच्छे लोगों की कद्र करना नहीं जानते हैं। देखा आपने; जो अच्छा करना चाह रहा था, उसे ही त्यागपत्र देकर जाना पड़ रहा है।’ मैं उनसे सहमत तो नहीं था, लेकिन फिर भी चुप रहा। लेकिन जब इसी दिशा में बिना रुके उन्होंने काफ़ी बातें कह दी और अपनी असफलता का सारा दोष स्टाफ़ से लेकर संचालक और प्रोसेस पर मढ़ दिया, तो मेरे पास उन्हें आईना दिखाने के सिवा कोई अन्य उपाय ही नहीं बचा। वैसे आगे बढ़ने से पहले मैं आपको एक बात और बता दूँ, ऐसा मैंने ईगो अथवा ख़ुद को बेहतर दिखाने के लिए नहीं किया था। अपितु इसके पीछे की मुख्य वजह उनको उनकी ग़लतियों से रूबरू कराना था। जिससे वे भविष्य में उन्हें दोहराने से बच सकें और अपने व्यवसायिक जीवन में ग्रोथ लेते हुए सुचारू रूप से आगे बढ़ सकें।
इसलिए मैंने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘सर, मेरे अनुसार आप योग्य थे; आपने योजना भी अच्छी बनाई थी; आप मानसिक तौर पर विद्यालय में सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए भी तैयार थे; संचालक मंडल ने आपको सभी संसाधन भी उपलब्ध करवा दिए थे। अगर इन बातों को आधार बनाकर देखा जाए तो ग़लतियों की संभावना सिर्फ़ क्रियान्वयन में है। इतना कहकर मैंने अपनी बात को बीच में रोकते हुए उनसे प्रश्न किया, ‘क्या आप मेरी इस बात से सहमत हैं?’ प्राचार्य महोदय ने तुरंत हाँ में अपना सर हिला दिया। मैंने पुनः अपनी बात आगे बढ़ाई और कहा, अब हमारे पास दो ऑप्शन बचे हैं, पहला, काम करने वाले याने आपकी योजना के क्रियान्वयन में लगने वाले लोग नाकारा थे और दूसरा, आप उनसे काम नहीं करवा पाए। अगर आप मुझसे इन दोनों में से किसी एक वजह को चुनने के लिए कहेंगे तो मैं दूसरे कारण को चुनूँगा।
मेरे इतना कहते ही वे थोड़े बिफर गए और बोले, ‘सर, आप मेरी योग्यता पर प्रश्न चिन्ह लगा रहे हैं।’ मैंने उनकी बात को बीच में ही काटते हुए कहा, ‘जी नहीं सर, मैं पहले ही बोल चुका हूँ आप योग्य थे। असफलता की मुख्य वजह आपका या अन्य कर्मचारियों का अयोग्य या योग्य होना या ज्ञान की कमी होना नहीं था। अपितु इसकी मुख्य वजह आपके नज़रिए का सही ना होना था। आपने कार्य शुरू होने के पहले ही उत्तर भारत, मध्य भारत के लोगों को दोष देना शुरू कर दिया था। इस वजह से आप उनसे कार्य शुरू करने के पहले रिश्ता स्थापित नहीं कर पाए और जब तक अधिकारी और कर्मचारी के बीच विश्वास और भरोसे का रिश्ता ना हो, तब तक अच्छे परिणाम की अपेक्षा रखना बेमानी ही है।’
मुझे नहीं पता वो मेरे विचार से सहमत थे या नहीं, लेकिन दोस्तों मेरा तो यही मानना है। जब तक भरोसा, विश्वास और सही नज़रिया नहीं होगा तब तक टीम के रूप में सफलता पाना मुश्किल ही है। एक बार विचार करके देखियेगा ज़रूर…
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
Comments