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जैसा पैसा, वैसा मन…

Writer's picture: Nirmal BhatnagarNirmal Bhatnagar

July 23, 2024

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

‘जैसा अन्न, वैसा मन’, दोस्तों मेरे लिये यह जीवन की दूसरी पारी में सीखी गई सबसे महत्वपूर्ण बात है। इस मंत्र पर मेरा विश्वास उस वक़्त और बढ़ गया था जब मैंने पानी के साथ गायत्री मंत्र के प्रभाव पर आधारित एक रिसर्च को पढ़ा था। बीतते समय के साथ अपने अनुभव के आधार पर मैंने इस मंत्र में एक वाक्य और जोड़ दिया था और कहना शुरू कर दिया था कि ‘जैसा पैसा, वैसा अन्न और जैसा अन्न, वैसा मन!’ दूसरे शब्दों में कहूँ तो पाप या ग़लत तरीक़े से कमाया पैसा, अंततः आपके अंतर्मन को ही प्रदूषित कर देता है।


जैसे-जैसे मेरे अनुभव इस सूत्र के साथ बेहतर होते गये, वैसे-वैसे मैंने इस विषय में लोगों को जागरूक करना शुरू कर दिया। कुछ वर्षों तक तो ठीक चला, लेकिन एक दिन इस सूत्र की वजह से मैं बड़ी विकट स्थिति में फँस गया। असल में एक ट्रेनिंग में जब मैंने इस सूत्र को लोगों को समझाया तो उसमें एक प्रतिभागी ने मुझसे प्रश्न किया, ‘आप किस आधार पर कह रहे हैं कि पैसे का प्रभाव, अन्न पर और अन्न का प्रभाव मन पर पड़ता है? क्या आप इसे विस्तार से समझा सकते हैं?’ दोस्तों, उस दिन तो मैंने किसी तरह बात को सम्भाल लिया, लेकिन अब यह प्रश्न मेरे मन में चलने लगा। लेकिन जैसा कहा और माना जाता है कि जब आप सच्चे दिल से किसी चीज को पाने का प्रयास करते हैं तो पूरी प्रकृति आपका साथ देती है। ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ और मेरे एक मित्र ने मुझे पंडित श्री राम शर्मा ‘आचार्य’ द्वारा इस विषय पर लिखा एक लेख मुझे भेजा, जो इस प्रकार था-


कई साल पहले सत्संग के पश्चात एक युवा महात्मा के पास पहुँचा और उनसे बोला, ‘गुरुजी! मैंने अपने जीवन बहुत पाप किए हैं, मैं उनका प्रायश्चित करना चाहता हूँ। कृपया कोई उपाय बताइये।’ महात्मा जी ने उसे गंगा स्नान कर पाप धोने का सुझाव दिया। इस पर वहाँ बैठे एक अन्य युवक ने महात्मा जी से प्रश्न किया, ‘महात्मा जी आप सभी को गंगा स्नान कर पाप धोने का सुझाव देते हैं। इसका मतलब तो यह हुआ कि पाप गंगा जी में समा गये। इसका मतलब तो यह हुआ कि अब गंगा जी भी पापी हो गई।’


युवक की बात सुन महात्मा जी सोच में पड़ गये क्योंकि उन्होंने कभी इस विषय में सोचा ही नहीं था कि गंगा जी से पाप कहाँ जाते है? आखिरकार इस अनूठे प्रश्न का उत्तर जानने के लिए महात्माजी तपस्या करने लगे। कई दिनों की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान ने उस भक्त को दर्शन दिए और उसे वर माँगने के लिये कहा। महात्मा जी बोले, ‘प्रभु, मुझे तो बस अपने एक प्रश्न का उत्तर चाहिए कि गंगा में धोया गया पाप कहाँ जाता है?’ भगवान बोले भक्त इसका सर्वश्रेष्ठ उत्तर तो माँ गंगा ही दे सकती है। चलो हम दोनों चलकर उनसे ही पूछते हैं।


अगले ही पल भगवान अपने भक्त के साथ गंगा जी के सम्मुख थे। वहाँ भी महात्मा जी ने अपना प्रश्न दोहरा दिया। इसपर गंगा माँ मुस्कुराते हुए बोली, ‘भला मैं क्यों पापी हुई, मैं तो अपना सारा जल पापों सहित समुद्र को समर्पित कर देती हूँ। उसके बाद उन पापों का समुद्र देवता क्या करते है, ये वही बता सकते हैं।’ माँ गंगा को प्रणाम कर महात्मा, भगवान को साथ ले समुद्र के पास पहुँचे और उनको प्रणाम करते हुए अपने प्रश्न से अवगत करवा दिया। इस पर समुद्र देवता बोले, ‘माँ गंगा से जल के साथ मिले सभी पापों को मैं जल के साथ सूर्य के ताप से भाप बनाकर बादलों में परिवर्तित कर देता हूँ। इसलिए भला मैं क्यों पापी हुआ?’ अब भगवान महात्मा को बादलों के पास ले गये और वहाँ भी महात्मा जी ने बादलों को प्रणाम कर अपना प्रश्न दोहरा दिया और पूछा क्या अब बादल पापी हैं?’ इस पर बादल मुस्कुराते हुए बोले, ‘नहीं, बिलकुल नहीं!!! क्योंकि हम तो पाप युक्त संपूर्ण जल यथा समय वर्षा के रूप में वापस पृथ्वी पर भेज देते हैं। इसलिए अब आपके प्रश्न का सही उत्तर पृथ्वी ही दे सकती है। भगवान और संत अगले ही पल पृथ्वी के पास पहुँचे और उन्हें प्रणाम करते हुए बोले, ‘हे जगत को धारण करने वाली माँ धरती, बादल जल की बूंदों के साथ पापों की जो वर्षा करते है, वो पाप आपमें समा जाते है । तो क्या उनसे आप पापी होती है?’ पृथ्वी बोली, ‘मैं क्यों पापी हुई? मैं उन पापों को मिट्टी के माध्यम से अन्न में भेज देती हूँ। अब ये बात तो आप अन्न से पूछो कि वो उन पापों का क्या करता है?’ अब दोनों अन्न देवता के पास गये और उन्हें प्रणाम करते हुए बोले, ‘हे अन्न देवता ! पृथ्वी सारे पाप आपको भेजती है, तो क्या आप पापी हुए?’ अन्न देवता ज़ोर से हंसते हुए बोले, ‘मैं क्यों पापी हुआ? जो मनुष्य मुझे जिस मनःस्थिति और वृति से अन्न को उगाता है या प्राप्त करता है। जिस मनःस्थिति और वृति से मुझे पकाकर खाता या खिलाता है, उसी मनःस्थिति और वृति के अनुरूप मैं पापों को उन मनुष्यों तक पहुँचा देता हूँ। जिसे खाकर उन मनुष्यों की बुद्धि भी वैसी ही पापी हो जाती है जो उनसे उनके कर्मों का फल देने वाले कार्य करवाती है।’

दोस्तों, मुझे नहीं पता कि उपरोक्त कहानी कितनी सच्ची है पर मुझे लगता है कि शायद इसीलिए कहा गया है कि ‘जैसा खाय अन्न, वैसा होय मन!’ इस आधार पर देखा जाये तो पाप कर्मों को गंगा जी में धोने का मतलब है, मन को पाप कर्मों से मुक्त करना। यदि मन में पाप और अपवित्रता है, तो गंगा जी में धोया पाप अन्न के माध्यम से फिर से हमें ही मिलने वाला है क्योंकि अन्न को जिस वृति से कमाया और बनाया जाता है, उससे वैसे ही संस्कार बनते है।


दोस्तों, अब तो आपको भी उपरोक्त सूत्र ‘जैसा पैसा, वैसा अन्न और जैसा अन्न, वैसा मन!’ का अर्थ समझ आ गया होगा और आप इस सूत्र को अपने जीवन में अपनाने का निर्णय भी ले चुके होंगे।


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

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