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  • Writer's pictureNirmal Bhatnagar

जो हुआ अच्छे के लिए हुआ और जो होगा अच्छे के लिए होगा…

Oct 14, 2022

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

हाल ही में पारिवारिक चर्चा के दौरान मैंने महसूस किया कि सामान्य से मुद्दे पर हो रही बातचीत ने कुछ ही देर में तार्किक बहस का रूप ले लिया और सभी लोग क्या सही है से ज़्यादा, हम सही हैं, सिद्ध करने में लग गए। इस दौरान मैंने स्वयं को कई बार नकारात्मक भावों के साथ पाया। वैसे ज़्यादा खुलकर कहूँ तो स्वयं को ग़ुस्से या क्रोध के भाव के साथ पाया और यही स्थिति चर्चा में मौजूद बाक़ी सभी लोगों की भी थी।


वैसे, यह कोई अनूठी घटना नहीं थी, सामान्यतः हम सभी कभी ना कभी ऐसी स्थिति से दो-चार होते हैं जिसमें चर्चा बहस का रूप ले लेती है और उसमें भाग ले रहे लोग क्रोध या तैश में आकर व्यवहार करने लगते हैं। चर्चा के बाद जब कुछ पल शांति के साथ, उस माहौल से कट कर बिताने का मौक़ा मिला तो मैंने महसूस किया कि ग़ुस्से के भाव के अंदर हम सभी लोग खुद को न्यायसंगत मनःस्थिति में पाते हैं और सोचते हैं, ‘अगर यह सभी लोग मेरे अनुसार चलते तो फ़ायदे में रहते। इन्हें इतनी सी बात क्यूँ समझ नहीं आ रही है? मेरे सुझाव में जीवन को बेहतर बनाने की क्षमता है या मैं अपने विचारों से इस दुनिया को और बेहतर बना सकता हूँ।’ इतना ही नहीं ग़ुस्से के दौरान अक्सर हमें लगता कि अगर परिवार या समूह में किसी का बुरा भी हो रहा है तो होने दो, मुझे क्या फ़र्क़ पड़ता है। यह उसके खुद के निर्णय का परिणाम है।


जी हाँ साथियों, ग़ुस्से के दौरान हम खुद कि सोच या तर्कों के आधार पर धारणा बना लेते हैं कि ‘मेरा ही रास्ता सब से अच्छा है’ और यही धारणा हमें संसार के एक महत्वपूर्ण नियम या इस सच्चाई से दूर कर देती है कि ‘यह दुनिया ना तो पहले कभी किसी एक व्यक्ति के नियमों से चली है और ना ही कभी भविष्य में चलेगी।’ दुनिया में हमेशा वैचारिक मतभेदों की वजह से उथल-पुथल रही है और यही एकमात्र वास्तविकता है, जिसे नकारना मूर्खता से अधिक कुछ नहीं होगा।


दोस्तों, उपरोक्त परिस्थितियों में अर्थात् वैचारिक उथल-पुथल या मतभेदों के दौरान भी आप शांत, खुश और चिंतारहित रहना चाहते हैं, तो सबसे पहले अपने अंदर स्वीकारोक्ति का भाव लाएँ। जैसे ही हम स्वीकारते हैं की हर इंसान, फिर चाहे वह हमारे परिवार का ही हिस्सा क्यों ना हो, अपने नियमों, जीवन मूल्यों, सोच और व्यवहार के अनुसार ही चलता है, फिर भले ही वह अव्यवहारिक, नुक़सान पहुँचाने वाला या नकारात्मक ही क्यों ना हो। दूसरे शब्दों में कहूँ तो, ‘वे अपने जीवन की गाड़ी अपने नियमों के अनुसार चलाते हैं और चलाते रहेंगे, और हाँ उनके नियम हमारे मूल्यों या नियमों के सामान या उससे अलग हो सकते हैं।’


दोस्तों, सोच का यह अंतर सम्माजनक व्यवहार, समय की पाबंदी, साफ़-सफ़ाई, ईमानदारी, धर्म, रहन-सहन, खान-पान, शिक्षा, व्यवसाय, जीवन मूल्य, रिश्तों, आदि किसी से भी सम्बंधित हो सकता है। आप तो बस एक बात याद रखिए, ‘वैचारिक भिन्नता के दौरान क्रोधित होना व्यर्थ है क्यूँकि क्रोध से कुछ नहीं बदलता। बल्कि आप खुद एक जैसे विचारों के चक्रव्यूह में उलझ जाते हो।’ वैसे भी, दूसरों की ग़लतियों को सुधारने या उन्हें बदलने का हक़ या अधिकार हमें कहाँ मिला है? जो जैसा है, उसे वैसे ही रहने का अधिकार ज़रूर है। जब वो चाहेगा खुद को बदलेगा और नहीं चाहेगा तो जैसे अभी तक रहता आया है, वैसे ही आगे भी रहता रहेगा, इसमें परेशान या चिंतित या फिर क्रोधित होने कि ज़रूरत नहीं है।


शांत चित्त, खुश और मस्त रहने का एक ही सुनहरा नियम सिर्फ़ यह याद रखना है, ‘क्रोधित, चिंतित या परेशान होना व्यर्थ है क्यूंकि इससे कुछ नहीं बदलता। हाँ यह बात भी सही है कि क्रोध के दौरान आपको लग सकता है कि आप सही हैं। लेकिन इससे अहम या ज़्यादा महत्वपूर्ण सवाल यह है, ‘क्या यह स्थिति आपको खुश करती है? या फिर यही स्थिति आपके और आपके परिवार के लोगों को खुश रहने में मदद करती है?’ मुझे तो लगता है, ‘शायद नहीं!’ क्यूँकि सच्चाई तो सिर्फ़ इतनी सी है, ‘क्रोधित व्यक्ति अपने तर्कों के साथ, हर बार सिर्फ़ अपने आप पर क्रोधित होता है और खुद को और अधिक चिंतित, परेशान और क्रोधित बनाता है। तो आईए साथियों आज से उपरोक्त सुझावों पर काम करते हैं और अपने अंदर स्वीकारोक्ति का भाव लाते हैं कि ‘जो हुआ है, अच्छे के लिए हुआ है और आगे भी जो होगा वह अच्छे के लिए ही होगा !!!’


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

nirmalbhatnagar@dreamsachievers.com


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