Sep 18, 2023
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, कुछ लोग आपके जीवन में ऐसे भी होते हैं जिनकी नज़र में आप पचास की उम्र में भी वैसे ही रहते हैं जैसे आप २५ की उम्र में थे। ऐसे ही कुछ साथियों से हाल ही में मिलने का मौक़ा मिला। मेरे सामान में किताबों को देख एक मित्र बोला, ‘इन्हें पढ़ता भी है या सिर्फ़ दिखावे के लिए साथ रख रखी हैं।’ उसकी बात सुनते ही मेरे समेत बाक़ी सभी साथी भी हंसने लगे। इतने में ही दूसरा मित्र बोला, ‘मुझे तो लगता है, यह अभी तक सुधरा ही नहीं है। आज भी किताबें लिये घूम रहा है।’ तभी तीसरे मित्र ने बात को थोड़ा गंभीर बनाते हुए कहा, ‘यार निर्मल तो ठीक है, मैंने निर्मल की बेटी दीक्षिता को भी इसी तरह किताबों के साथ देखा है। इसके घर पर तो एक छोटी सी लाइब्रेरी भी है। पता नहीं कैसे इसने दीक्षिता को भी यह आदत डाल दी मैं तो अपने बच्चों से कह-कह के थक गया हूँ लेकिन उसके बाद भी मजाल है वे कोई किताब उठा लें।’
वैसे दोस्तों, यह उस अकेले मित्र की नहीं अपितु आज की पीढ़ी की कॉमन समस्या है। जानते हैं क्यूँ? क्योंकि उनके माता-पिता, बड़े भाई-बहन या परिवार के अन्य सदस्यों में से कोई भी किताब पढ़ नहीं रहा है और जब तक माँ-बाप या परिवार के अन्य सदस्य किताब नहीं पढ़ेंगे तब तक बच्चे किताब पढ़ने का महत्व नहीं समझ पायेंगे। जिसका असर उनके पूरे जीवन पर पड़ेगा। याद रखियेगा साथियों, जिस घर-परिवार में किताबों के मुक़ाबले टीवी को प्रधानता दी जाती है वहाँ के बच्चों का चहुँमुखी विकास और आंतरिक सुधार बहुत धीरे-धीरे होता है और इन दोनों याने चहुँमुखी विकास और आंतरिक सुधार के बिना सही मायने में सारी शिक्षा अधूरी है।
मेरा तो साथियों, यहाँ तक मानना है कि किताबें, संस्कार, संस्कृति से परिचय, ज्ञान आदि ही वह असली संपत्ति है जो सही मायने में हमारे बच्चों को अमीर बनाती है। जी हाँ साथियों, इनके बिना तो कुबेर का ख़ज़ाना पाने के बाद भी इंसान ग़रीब ही रहता है।अपनी बात को मैं आपको श्रीमती सुधा मूर्ति जी के एक क़िस्से से समझाने का प्रयास करता हूँ। इंफ़ोसिस की स्थापना के शुरुआती दिनों में कफ परेड में रहने वाले एक बहुत रईस परिवार ने नारायण मूर्ति एवं सुधा मूर्ति को रात्रिभोज के लिए अपने घर पर आमंत्रित किया। तय दिन और समय पर दोनों लोग उन सज्जन के घर पहुँच गये जहाँ सामान्य बातचीत के बाद दोनों के समक्ष चाँदी की थाली में लजीज भोजन परसा गया। भोजन के पश्चात जब सुधा मूर्ति वापस घर पहुँची तो अनायास ही उनके मुँह से निकाला, ‘कितने ग़रीब हैं यह लोग!’ इतना सुनते ही नारायण मूर्ति बोले, ‘तुम ऐसा कैसे कह सकती हो?’ सुधा मूर्ति पूरी गंभीरता के साथ बोली, ‘उनके ड्राइंग रूम में एक भी किताब नहीं थी।’
दोस्तों, बात तो सुधा मूर्ति ने बहुत गहरी कही थी क्योंकि हमारे पास स्थायी तौर पर ज्ञान के सिवा कुछ भी रहने वाला नहीं है। फिर चाहे वह आपका रूप-रंग हो, रिश्ते हो या फिर पैसा। इस आधार पर देखा जाये, तो अगर हम बच्चों में ज्ञान की भूख जगा दें और उन्हें विरासत में अच्छी किताबों का ख़ज़ाना दे दें, तो हम वाक़ई में उन्हें मूल्यवान बना सकते हैं। हाँ यह सही है कि ऐसा करना आसान नहीं होगा लेकिन इसके बिना बच्चों से चमत्कार की उम्मीद रखना भी बेमानी होगा।
इसीलिए शायद सुधा मूर्ति ने कहा है, ‘अगर आपने बच्चों को ज्ञानी बनाने के लिए मेहनत नहीं करी है तो उनसे किसी भी चमत्कार की उम्मीद मत रखिए।’ दोस्तों, अगर आप मेरी बात से सहमत हों तो आज से ही पढ़ने की आदत डालिये और घूमने के लिए मॉल या रेस्टोरेंट जाने के स्थान पर लिट्रेचर फेस्टिवल, म्यूजियम, बुक रीडिंग क्लब आदि जगह ले जायें। दूसरे शब्दों में कहूँ तो उन्हें ऐसी जगह ले जाना शुरू कीजिए जहाँ से उन्हें ज्ञान मिल सके। याद रखिएगा दोस्तों, बच्चे जो हम कहते हैं उससे नहीं अपितु जो हम करते हैं उससे अधिक सीखते हैं।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
nirmalbhatnagar@dreamsachievers.com
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