Jan 21, 2024
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
दोस्तों, अनावश्यक दबाव, हर क्षेत्र में अव्वल आने की चाह, प्रतियोगी माहौल, तुलनात्मक नज़रिया, सामाजिक अपेक्षायें, आदि आजकल बच्चों के अंदर एक ऐसा अनचाहा डर पैदा कर रहा है जिसमें उलझकर कई बच्चे जीने के स्थान पर मरना ज़्यादा आसान मान रहे हैं। बात दोस्तों वाक़ई बड़ी गंभीर और चिंतनीय है और इसके ज़िम्मेदार निश्चित तौर पर हम पालक ही हैं। शायद हमने भविष्य को उनके लिए इतना महत्वपूर्ण बना दिया है कि वे अपने आज को नकारात्मक भावों के साथ ख़त्म कर रहे हैं।
दोस्तों, यह समस्या कितनी विकट और बड़ी है इसका अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि सरकार इसे दृष्टिगत रख क़ानून बना रही है और कोचिंग संस्थानों को नियमों में बांधने का प्रयास कर रही है। लेकिन मेरा मानना है कि सरकार से पहले हमें याने समाज को इस विषय में सोचना पड़ेगा। याद रखियेगा, जीवन की असली क़ीमत को बच्चों को समझाने की जवाबदारी सरकार से पहले हमारी याने पालकों, शिक्षकों और समाज के वरिष्ठ लोगों की है। जी हाँ दोस्तों, जिस तरह हम उन्हें बदलती दुनिया, विज्ञान, शिक्षा, अच्छे कैरियर आदि के बारे में जागरूक करते हैं, ठीक उसी तरह हमें उन्हें ईश्वर प्रदत्त हर उस विशेषता के विषय में बताना होगा जो अनमोल है। जैसे, हमारा शरीर और उसके विभिन्न अंग।
आप स्वयं सोच कर देखिए जब उन्हें इस सृष्टि के सबसे बड़े और क़ीमती आश्चर्य याने मनुष्य के शरीर और उसके जीवन की सही क़ीमत का अंदाज़ा होगा तो क्या वे उसे नज़रंदाज़ कर पाएँगे? मेरी नज़र में तो बिलकुल भी नहीं। इसलिए मेरे दोस्तों बच्चों को अच्छी शिक्षा, अच्छे कैरियर, पैसे के महत्व आदि को बताने से पहले जीवन के मूल्य और उसकी महत्ता के बारे में बताएँ। उसे बताएँ कि ८४ लाख योनियों में मनुष्य योनि में जन्म मिलने का क्या महत्व है, जिससे वह अपने शरीर, अपनी ज़िंदगी का सही मूल्य पहचान सके और उसका ख़्याल रख सके। इसीलिए तो अष्टावर्क महागीता भाग-१ में शरीर का मूल्य समझाते हुए लिखा है, ‘जो हमें मिला है, वह तो हमें दिखता नहीं; उसका मूल्य हमें समझ आता नहीं। जैसे हमारी आँखें! ज़रा इनका ख़्याल रखिए! यह अद्भुत और चमत्कारिक है। यह चमड़ी से बनी है, चमड़ी का ही अंग है, लेकिन फिर भी देख पाती है। देखा जाए तो असंभव संभव हुआ। इसी तरह हमारे कान, जो सुन पाते हैं संगीत को; पक्षियों के कलरव को; हवाओं के मर्मर को; सागर के शोर को। लेकिन यह भी सिर्फ़ चमड़ी और हड्डी से बने हैं। इस चमत्कार को तो देखिए और महसूस कीजिए। इस दुनिया का सबसे बड़ा चमत्कार तो हमारा होना है। इस हड्डी, मांस-मज्जा की देह में चैतन्य का दीया जल रहा है, ज़रा इस चैतन्य के दीये का मूल्य तो आंकें!’
वैसे भी दोस्तों, बाहरी दुनिया को चाहना हमारे जीवन को दुखी और परेशानी भरा बनाता है और जो बिना माँगे मिले, उसे चाहना, उसका सम्मान करना हमें सुखी, संतुष्ट और भाग्यशाली बनाता है। इसलिए ईश्वर ने हमें जो बिना माँगे दिया है, हमें उसका सम्मान करना ना सिर्फ़ ख़ुद सीखना होगा बल्कि बच्चों सहित सभी को सिखाना होगा। जब बच्चे यह सीख पायेंगे कि उपहार स्वरूप मिला यह जीवन अनमोल है, तब वे जीवन में स्वीकार्यता का भाव ला पाएँगे।
याद रखियेगा साथियों, स्वीकार्यता का भाव क्रमिक-विकास का सूचक है। जब हम जीवन में जो भी होगा या जो भी आएगा उसको स्वीकारने का नज़रिया विकसित कर लेते हैं, तब हम जो भी आएगा उसका सामना करने के लिए तैयार हो जाते हैं और जब आप स्वीकारना और प्रेम करना शुरू कर देते हैं, तब आप जीवन जीना शुरू कर देते है और जीवन का हर पहलू अपने आप ही फ़लने-फूलने लगता है।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
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