May 27, 2024
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
दोस्तों, हम उस देश के वासी है जहाँ खाना ना सिर्फ़ खाने का बल्कि चर्चा का, पहचान का, भाषा का और विशेषज्ञता का विषय भी हो सकता है। शायद इसीलिए हमारे यहाँ खाने को लेकर ढेरों कहावतें प्रचलित है। जैसे, ‘पहले पेट पूजा, फिर काम दूजा…’, ‘मतलबी यार किसके, खाये, पिये और खिसके…’, आदि। आप स्वयं सोच कर देखिए जहाँ खाने को इतना महत्वपूर्ण माना जाता हो, वहाँ बिना मनुहार के या यूँ कहूँ बिना ज़बरदस्ती खिलाए किसी भी दावत का पूर्ण होना क्या संभव है? मेरी नज़र में तो शायद नहीं क्योंकि मैंने इसका अनुभव पिछले कुछ दिनों में तीन-चार बार किया है। असल में पिछले कुछ दिनों में मुझे लगभग ४-५ फंक्शन में जाने का मौक़ा लगा, जहां कार्यक्रम के बाद लंच या डिनर की व्यवस्था की गई थी। इन सभी जगह मैंने आयोजकों के व्यवहार में एक बात समान पाई। सभी आयोजक बार-बार मना करने के बाद भी मीठा खिलाने के लिए आतुर थे। उन सभी का कहना था कि ‘इतने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा।’
एक स्थान पर तो मेरे मित्र, मेरे मना करने के रवैये से नाराज़ हो गए और मुझ पर, मेरी आदतों पर कमेंट करने लगे। असल में दोस्तों वे समझ नहीं पा रहे थे कि मैं मना अपनी ज़िद के कारण नहीं बल्कि शरीर की आवश्यकता के आधार पर कर रहा हूँ। अगर मैंने आज अति में मीठा खाना अपनी इच्छा से नहीं छोड़ा तो कल मुझे मीठा खाना मजबूरी में छोड़ना पड़ेगा और जब छोड़ने की नौबत आना ही है तो फिर इच्छा से ही क्यों ना छोड़ा जाए? वैसे दोस्तों यही तो ‘त्याग’ और ‘नाश’ का प्रमुख अंतर है। जब आप स्वयं की इच्छा से किसी वस्तु अथवा पदार्थ को छोड़ते है, तो वह ‘त्याग’ कहलाता है और स्वयं की इच्छा ना होते हुए किसी वस्तु अथवा पदार्थ का छूट जाना ‘नाश’ कहलाता है। इस आधार पर देखा जाए दोस्तों, तो ‘त्याग’ और ‘नाश’ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
दोस्तों, इस जहां का एक और अटल सत्य है, ‘इस दुनिया में कुछ भी शाश्वत नहीं है।’ फिर चाहे वह मान, पद, प्रतिष्ठा, शरीर, स्वास्थ्य, वैभव आदि कुछ भी क्यों ना हो। जिस तरह सूर्य सुबह अपने पूर्ण प्रकाश के साथ उदय होता है और शाम होते-होते डूब जाता है; उसका प्रकाश क्षीण होने लगता है। अर्थात् दिन में प्रचंड प्रकाश फैलाने वाला वही सूर्य अस्तांचल में कहीं अपनी रश्मियों को छुपा लेता है और रात्रि को चंद्रमा अपनी शीतलता बिखेरता है, पर सुबह होते-होते वो भी कहीं प्रकृति के उस विराट आँचल में छुप सा जाता है।
ठीक इसी तरह, जिन फलों को वृक्ष द्वारा बाँटा नहीं जाता है, कुछ समय बाद उन फलों में अपने आप सड़न आने लगती है और जब पेड़ पर लगे फल सड़ने लगते हैं तब वे ना सिर्फ़ पेड़ को बल्कि आसपास के पूरे क्षेत्र को दुर्गंध युक्त कर देते हैं। इसका अर्थ हुआ, ‘जो आज है, वह कल नहीं रहेगा।’ और जब प्राप्त चीज का जाना तय है तो फिर उससे मोह कैसा? जी हाँ दोस्तों, हम जितना जल्दी इस तथ्य को स्वीकारेंगे, उतना ही जल्दी हम उदारता के साथ जीवन जीना शुरू कर पाएँगे।
दोस्तों, आप इसे स्वीकारें या ना स्वीकारें इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, समय आने पर प्रकृति द्वारा सब कुछ स्वतः वापस ले लिया जायेगा। अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप उपरोक्त बात स्वीकार कर; बाँटकर, अपनी विशेषता, यश और कीर्ति की सुगंध को बिखेरना चाहते हैं या उसे सम्भालकर या संग्रह कर, आसक्ति की दुर्गंध को बढ़ाना चाहते हैं। एक बार विचार कर देखियेगा ज़रूर…
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
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