Jan 18, 2024
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
आईए दोस्तों आज के लेख की शुरुआत एक कहानी से करते हैं। बात कई साल पुरानी है एक संत ने समाज कल्याण और ग़रीबों की सेवा को ध्यान में रखकर एक मिशन शुरू किया। शुरुआती दौर में इसे सही तरीक़े से आगे बढ़ाने के लिए काफ़ी सारी पूँजी की आवश्यकता थी इसलिए उन्होंने अपने शिष्यों को तन, मन और धन के साथ सहयोग करने और इसी विचार से दूसरों को जोड़ने के लिए कहा। गुरु से आज्ञा पा सभी शिष्य अपने-अपने स्तर पर दान दाताओं को खोजने में लग गए।
इसी तारतम्य में एक शिष्य कोलकाता पहुँचा और वहाँ के दान दाताओं से मिल कर गुरु की योजना के बारे में बताकर दान एकत्र करने लगा। एक दिन किसी ने उसे कोलकाता के सबसे बड़े दानवीर सेठ से मिलवाया। शिष्य ने उस सेठ को सामाजिक उत्थान के लिए गुरु द्वारा बनाई सारी योजना बताई, जिसे सुन सेठ ने दान देने की इच्छा जताते हुए, गुरु से मिलवाने के लिए कहा। शिष्य ने सोचा समाज कल्याण हेतु इन्हें गुरुजी से मिलवाना उचित ही होगा। विचार आते ही शिष्य उन्हें लेकर सीधे गुरुजी के पास पहुँच गया।
संत के पास पहुँचते ही सेठ ने पहले तो उन्हें प्रणाम किया और फिर बोला, ‘गुरुजी, समाज कल्याण के आपके इस पुनीत कार्य में, मैं भी छोटा सा अंशदान देकर पूरे भवन का निर्माण करना चाहता हूँ, पर मेरी एक इच्छा आपको स्वीकार करना होगी। मैं प्रत्येक कमरे के आगे अपने परिजनों का नाम लिखवाना चाहता हूँ। इस हेतु मैं दान की राशि एवं नामों की सूची साथ लेकर आया हूँ।’ इसके पश्चात उसने साथ लाई पैसों की थैली और नामों की सूची गुरुजी के सामने रख दी।
सूची और पैसों की थैली देख सेठ की आशा के विपरीत संत एकदम नाराज़ हो गये और अपने शिष्य की ओर देखते हुए बोले, ‘अज्ञानी, तुम किसे अपने साथ ले आए हो? यह सेठ आश्रम नहीं क़ब्रिस्तान बनाना चाहता है। इसे ना तो अपना मिशन समझ आया है और ना ही यह दान की परिभाषा समझता है।’ इतना कहकर संत उठकर अपनी कुटिया में चले गए। आशा के विपरीत संत का व्यवहार देख सेठ चौंक गए क्योंकि उन्हें अपने जीवन में आज तक दान लौटाने वाले संत नहीं मिले थे।
इस घटना के बाद सेठ के लिए कुछ भी सामान्य नहीं बचा था। वे हर पल इसी विषय में सोचा करते थे। उस वक़्त तो वे कोई और उपाय ना देख वापस कोलकाता चले गए और ख़ुद को अन्य कामों में व्यस्त रखने का प्रयास करने लगे। लेकिन लाख प्रयास करने के बाद भी उन्हें इसमें सफलता हाथ नहीं लगी। वे किसी भी तरह इस घटना को भूल नहीं पा रहे थे। कुछ माह बाद एक दिन अचानक ही सेठ को संत की बात का मर्म समझ आया और वे उसी पल वापस संत के पास पहुँचे और बिना कुछ कहे उनके चरणों में दान की राशि रख, सामने बैठ गए। संत उनका निःस्वार्थ भाव देख काफ़ी प्रसन्न हुए और उन्होंने सेठ को आश्रम के हवन आदि में सम्मिलित करवाया और उनका सम्मान किया। दूसरी ओर सेठ दान देने के पश्चात ऐसे गहरे आंतरिक सुख और शांति की अनुभूति कर रहा था जो उसने पहले कभी नहीं की थी।
दोस्तों, दान कभी भी दिखावे की वस्तु नहीं होता है। इसीलिए हमारे धर्म में कहा जाता है, ‘जब एक हाथ दान दे तो दूसरे को पता भी नहीं चलना चाइए।’ और यह तभी संभव हो सकता है, जब दान निःस्वार्थ भाव से दिया जाए। वैसे भी दोस्तों, बोल कर या दिखा कर दिया गया दान, दान नहीं, दंभ का दिखावा होता है। याद रखियेगा, दान या मदद कर भूल जाना ही दानी की पहचान है। जो इस कार्य को उपकार मानता हैं असल में वो ना तो दान के अर्थ को जानता है और ना ही वो दानी है।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
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