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दान दुख का कारण ना बन जाए…

Writer's picture: Nirmal BhatnagarNirmal Bhatnagar

Sep 19, 2024

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, यह बात बिल्कुल सही है कि हमारे धर्म में दान के महत्व को बहुत ज़्यादा बताया गया है। इसीलिए हमारे समाज में दान को मानवता और इंसानियत की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ मानव कार्य के रूप में जाना जाता है। लेकिन कई बार यह दान दुख का कारण भी बन जाता है। ऐसी स्थिति में दान दिया जाये या नहीं; यही अपने आप में एक बड़ा प्रश्न बन जाता है। तो चलिए दोस्तों, आज हम एक कहानी के माध्यम से इस प्रश्न का उत्तर तलाशने का प्रयास करते हैं।


बात कई साल पुरानी है, शहर के एक धर्मात्मा सेठ के पास एक बार एक बहुत ही ग़रीब इंसान दान की अपेक्षा से आता है और सेठ से भोजन के लिए सहायता माँगता है। सेठ ने उसकी बुरी स्थिति को देख उसे कुछ पैसे दे दिये। पैसे लेकर वह व्यक्ति सीधे भोजन करने गया। लेकिन इसके बाद भी उसके पास कुछ पैसे बच गये, जिससे उसने शराब ख़रीद कर पी ली और अपने घर चला गया। उस रात पति शराब के नशे में अपनी भूखी पत्नी और बच्चों को खूब मारता है। जिससे दुखी होकर पत्नी आधी रात को घर के समीप स्थित तालाब में बच्चों के साथ कूद कर आत्महत्या कर लेती है।


समय का चक्र ऐसे ही चलता रहता है और कुछ वर्षों बाद दान देने वाला सेठ भी असाध्य रोगों की चपेट में आकर मर जाता है। मरने के बाद यमदूत सेठ को यमराज के पास ले जाते हैं, जहाँ भगवान चित्रगुप्त उसके कर्मों का हिसाब कर उसे नर्क में डालने का आदेश देते हैं। नर्क के विषय में सुनते ही सेठ बेचैन हो जाता है और भगवान चित्रगुप्त से एक बार और उसके कर्मों का हिसाब चेक करने का निवेदन करता है। जब भगवान चित्रगुप्त वापस से वही आदेश देते हैं तो वह लगभग गिड़गिड़ाते हुए सेठ उनसे कहता है कि भगवान हो ना हो आपसे गलती हो रही है। मैंने तो जीवन भर कभी पाप ही नहीं किया है। मैं तो हमेशा दान-धर्म में ही लगा रहता था। कृपया मुझे भगवान के समक्ष अपना पक्ष रखने का मौक़ा दो।


भगवान चित्रगुप्त और सेठ की बातों को बीच में काटते हुए यमराज बोले, ‘वत्स, ग़लतियाँ इंसान करता है। हमारे यहाँ गलती की कोई संभावना ही नहीं है।’ पर सेठ इन सब बातों को मानने के लिए तैयार ही नहीं था। वह तो भगवान से मिलाने की ज़िद पर अड़ा हुआ था। अंत में यमराज उसे भगवान के पास लेकर जाते हैं। जहाँ वह भगवान को प्रणाम कर अपनी बात रखते हुए कहता है, ‘प्रभु, मैंने अपना पूरा जीवन दान-धर्म करते हुए बिताया है। उसके बाद भी मुझे पापी मानते हुए नर्क में डाला जा रहा है। जब मैंने कोई पाप ही नहीं किया है तो फिर मुझे यह सजा क्यों दी जा रही है?’


सेठ की बात सुन भगवान अपनी चिर-परिचित हल्की मुस्कुराहट के साथ बोले, ‘वत्स! याद करो तुमने एक बार एक ग़रीब व्यक्ति को पैसे दिये थे।’ सेठ ने भगवान से अपने दान के विषय में सुनते ही तुरंत हाँ में गर्दन हिला दी। तब भगवान ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘वत्स! उसी घटना ने तुम्हें तीन जीव हत्या का दोषी बना दिया है। तू अगर उसे पैसे नहीं देता तो उस रात वह व्यक्ति अपनी पत्नी को दुख नहीं देता और उसकी पत्नी और बच्चे तालाब में कूदकर आत्महत्या नहीं करते।’


घटना को याद करते हुए सेठ ने तुरंत अपना पक्ष रखा और कहा, ‘प्रभु! मैंने तो एक ग़रीब और भूखे व्यक्ति को दान दिया था और शास्त्रों में दान देने को सबसे बड़ा धर्म बताया है, फिर यह पाप कैसे हो गया।’ भगवान उसी मुस्कुराहट के साथ बोले, ‘दान देने से पहले तुम्हें पात्र की योग्यता तो परखनी चाहिये थी कि वह दान लेने के योग्य भी है या नहीं या फिर तुम्हें उसे परख कर देखना था कि उसे किस तरह के दान की आवश्यकता है। तुम धन देने के स्थान पर उसे भोजन करा सकते थे और रही उसकी दरिद्रता की बात तो अगर उसे देना होता, तो मैं ही उसे नहीं दे देता? वो जिस योग्य था, मैंने उसे उतना दिया। अगर वह और पाने योग्य कर्म करता तो मैं उसे और देता। तुम्हारे दिये दान के कारण तीन जीव हत्या हुई है इसलिए तुम्हें दोषी माना गया है और इस पाप के लिए तुम्हें दंड भुगतना होगा।’ इतना कहकर भगवान अंतर्ध्यान हो गये।


दोस्तों, इसीलिए लेख की शुरुआत में मैंने कहा था कि दान कई बार दुख का कारण याने गले की फाँस बन जाता है। मेरी बात से अभी भी सहमत ना हों तो अपने आस-पास नज़र घुमा कर देख लीजियेगा आपको कई व्यक्ति मिल जाएँगे जो पूरे समय दान-धर्म में व्यस्त रहते हैं, लेकिन फिर भी कष्ट उनका और उनके परिवार का पीछा नहीं छोड़ता है। असल में उन्हें यह कष्ट भगवान उनकी परीक्षा लेने के लिए नहीं देता है, बल्कि उनके कर्मों के परिणाम स्वरूप देता है। इसलिए दोस्तों, हमेशा याद रखें, दान देने से पहले यह परखना ज़रूरी है कि आपके दान का उपयोग किसी पाप कर्म के रूप में तो होने वाला नहीं है।


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

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