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दुख मानवता के लिए वरदान है…

Writer's picture: Nirmal BhatnagarNirmal Bhatnagar

Aug 5, 2024

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, कहते हैं ना, ‘आप मरे बिना स्वर्ग नहीं दिखता’, याने बिना कष्ट उठाए सफलता नहीं मिलती। ठीक उसी तरह बिना दर्द सहे, दूसरे के दर्द का एहसास नहीं होता है। इसीलिए कहा जाता है दूसरों की ग़लतियाँ निकालना, उन्हें सलाह देना, बड़ा आसान है। वैसे भी, जो आपने देखा नहीं, जिसके बारे में सुना नहीं, जिस दुख और तकलीफ़ को सहा नहीं, उसके बारे में अंदाज़ा कैसे लगाया जा सकता है? अपनी बात को मैं आपको अवार्ड विनिंग शॉर्ट फ़िल्म की कहानी के माध्यम से समझाने का प्रयास करता हूँ।


एक दिन एक बच्चा कुत्ते का पिल्ला ख़रीदने के लिए एक ‘पेट शॉप’ पर गया और दुकानदार से बोला, ‘भैया, मैं अपने लिए एक कुत्ते का पिल्ला लेना चाहता हूँ। क्या आप मुझे उसकी क़ीमत बता सकते हैं।’ दुकानदार बोला, दो हज़ार रुपये।’ क़ीमत सुनते ही बच्चे का मुँह थोड़ा उतर गया। जिसे देख दुकानदार ने उससे पूछा, ‘कोई समस्या है क्या?’ इस पर बच्चा भोलेपन के साथ बोला, ‘मेरे पास अभी केवल एक हज़ार रुपये हैं। अगर मैं आपको बचे हुए पैसे २५० रुपये प्रति माह के हिसाब से चुका दूँ तो चलेगा क्या?’


बच्चे के बालमन पर कोई ग़लत प्रभाव ना पड़े इसलिए दुकानदार ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए ‘हाँ’ कह दिया और अपने साथी को सभी पिल्लों को लाने का इशारा किया, जिससे बच्चा अपनी पसंद का पिल्ला चुन सके। कुछ ही मिनिटों में वहाँ पाँच-छह पिल्ले आ गये और उनमें से तीसरे नंबर वाले पिल्ले को इस बच्चे ने मन ही मन चुन लिया। अभी वह उस पिल्ले को उठाने ही जा रहा था कि अंदर से एक पिल्ला लँगड़ाता हुआ बाहर आया। उसे देखते ही यह बच्चा उसकी ओर इशारा करते हुए एकदम चहकता हुआ बोला, ‘मुझे वह पिल्ला चाहिये।’ दुकानदार बच्चे के चुनाव पर प्रश्न लगाता हुआ बोला, ‘लेकिन वह तुम्हारे साथ खेल नहीं पाएगा। इसका एक पैर ख़राब है।’ बच्चा सौम्यता के साथ सधे हुए शब्दों में बोला, ‘कोई बात नहीं। मुझे तो वही पिल्ला पसंद है और मुझे यही चाहिए।’


बच्चे की ज़िद के आगे दुकानदार ने झुकते हुए कहा, ‘ठीक है तुम उसे ले जा सकते हो और हाँ, तुम्हें इसके दाम देने की भी ज़रूरत नहीं है।’ बच्चा दुकानदार की बात बीच में ही काटते हुए बोला, ‘नहीं, मैं इस पिल्ले की पूरी क़ीमत दूँगा क्योंकि यह भी बाक़ी के पिल्लों की ही तरह महत्वपूर्ण है।’ बच्चे की बात ने दुकानदार को उलझन में डाल दिया था। उसने बच्चे से कहा, ‘मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि तुम्हें वही पिल्ला क्यों चाहिए? जबकि यहाँ और भी बहुत सारे पिल्ले हैं।’ बच्चा हल्की मुस्कुराहट के साथ बोला, ‘ताकि उसके जीवन में भी उसका दर्द समझने और बाँटने वाला भी कोई हो और वह ख़ुद को इस दुनिया में अकेला ना समझे।’ इतना कहकर बच्चे ने दुकानदार को पैसे दिए और उस पिल्ले को उठा कर वहाँ से चल दिया।’ दुकानदार उस जाते हुए बच्चे को बड़ी आश्चर्य के साथ देख रहा था। तभी अचानक उसका ध्यान बच्चे के पैरों की तरफ़ गया, जिसे देखते ही वह चौंक गया। असल में वह बच्चा भी एक पैर से लंगड़ा था और विशेष जूतों की सहायता से ही धीमी गति से चल पा रहा था। दुकानदार को अब बच्चे की बात समझ आ चुकी थी।


दोस्तों, वैसे तो अब बताने की ज़रूरत नहीं है कि बच्चे ने अन्य स्वस्थ और सुंदर पिल्लों के मुक़ाबले, उस लंगड़े पिल्ले को उसका दुख-दर्द महसूस करने के कारण ही ख़रीदा था। याने ख़ुद के लंगड़े होने के कारण झेले दुख, दर्द और परेशानी की वजह से ही बच्चा उस पिल्ले का दुख, दर्द और परेशानी समझ पाया था। इसीलिए दोस्तों कहा जाता है कि ‘दुःख तो हमारे जीवन का सबसे बड़ा रस है! इसके बिना सुख की अनुभूति होना असंभव है।’ जी हाँ दोस्तों, मेरी नज़र में तो दुख मानवता के लिए वरदान है क्योंकि जो स्वयं दुःख का अनुभव करता है, वही दूसरों के दुःख को पहचान पाता है।


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

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