Nov 4, 2024
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
दोस्तों, कई बार तो लगता है कि अच्छी बातें सिर्फ़ बोलने तक ही अच्छी लगती है। इसीलिए मैं हमेशा कहता हूँ, किसी बात को जानना और उसे अपने जीवन में उतारना दो बिल्कुल अलग-अलग बातें हैं। इसी तरह, गलतियों को पहचानना और उसे अपने अंदर खोज पाना भी दो बिल्कुल अलग-अलग बातें हैं। लेकिन यकीन मानियेगा दोस्तों, कोई भी इंसान अपने जीवन में सिर्फ़ और सिर्फ़ तभी आगे बढ़ पाता है, जब वह अच्छी बातों को जानने के साथ-साथ उन्हें अपने जीवन में उतार पाये और अपनी गलतियों को पहचान कर सुधार पाए। अपनी बात को मैं आपको एक कहानी के माध्यम से समझाने का प्रयास करता हूँ।
सुदूर गाँव में बंटी नाम का एक आदमी रहा करता था, जो हमेशा दूसरों में ग़लतियाँ ही खोजा करता था। उदाहरण के लिए अगर छत पर कपड़े सुखाते समय किसी के हाथ से कपड़े तेज हवा की वजह से उड़ जाएँ तो बंटी कहता था, ‘भाई कपड़े सूखा रहे हो या आसमान में पतंग उड़ा रहे हो।’ कुल मिलाकर कहूँ तो बंटी किसी भी इंसान की छोटी से छोटी गलती पर चुटकी लेने से बाज नहीं आता था। इसी वजह से गाँव वाले बंटी की इस आदत से परेशान रहा करते थे।
एक दिन, गांव के मुखिया ने गाँव की समस्याओं को जानने के लिए एक सभा बुलाई, जिसमें सभी गांव वासियों के साथ बंटी ने भी भाग लिया। लेकिन इस बार भी बंटी 'गलतियाँ ढूंढने के चश्मे' को लगाकर इस सभा में पहुँच गया। सभा में जैसे ही मुखिया ने बोलना शुरू किया, बंटी तुरंत खड़ा हो गया और बोलने लगा, ‘अरे, मुखिया जी! गांव में कोई काम सही हो रहा है क्या? हर जगह गलतियाँ ही गलतियाँ हैं!’ मुखिया जी को बंटी का यह अंदाज़ बिल्कुल पसंद नहीं आया। वे उसे सबक सिखाने के विषय में सोचने लगे। तभी गाँव के सबसे ज्ञानी बुजुर्ग रामदास काका खड़े हुए और बोले, ‘रघु, तुम दूसरों की गलतियों को तो बखूबी पहचान लेते हो, पर क्या कभी तुमने अपनी गलतियाँ को पहचानने का प्रयास किया है?’ रामदास काका की बात सुन शुरू में बंटी को थोड़ा अटपटा लगा। लेकिन कुछ क्षण बाद ही वह अपनी छाती फुलाते हुए बोला, ‘काका, मैं तो कभी कोई गलती करता ही नहीं हूँ।’ रामदास काका हँसते हुए बोले, ‘ठीक है, कल सुबह तुम एक दर्पण लेकर पूरे गांव में घूमो और लोगों से कहो कि इसमें अपनी गलतियाँ देखें।’
बंटी को काका की बात बड़ी मजेदार लगी। वह मन ही मन सोचने लगा कि अब तो लोग अपनी गलतियों को ख़ुद देखेंगे और मानेंगे।’ इन्हीं विचारों के साथ बंटी अपने घर गया और अगले दिन सुबह ही दर्पण लेकर निकल पड़ा। अब वह गाँव के हर घर में जा रहा था और सबसे कह रहा था कि ‘भाई, इस दर्पण में देखो और अपनी गलतियाँ पकड़ो। वरना मैं तो यहाँ हूँ ही!’ बंटी की बात सुन सब लोग मुस्कुरा रहे थे लेकिन बंटी को ऐसा लग रहा था मानो वह कोई महान कार्य कर रहा है। कुछ घंटों बाद बंटी गांव के अंतिम घर में पहुँचा जहाँ उसे रामदास काका मिले। बंटी उनसे कुछ कहता उसके पहले ही काका बोले, ‘अब तुम खुद भी इस दर्पण में देखो, रघु।’ बंटी ने सोचा, ‘मैं तो परफेक्ट हूँ, फिर भी काका कह रहे हैं तो दर्पण में देख लेते हैं।’ विचार आते ही उसने दर्पण में देखा तो उसे एहसास हुआ कि उसकी आँखें बड़ी हो गईं। उसकी शर्ट पर खाने का दाग था; उसके बाल बिखरे हुए थे; और चेहरे पर थोड़ी मिट्टी लगी हुई थी। उसने जल्दी से शर्ट को रगड़कर साफ करने की कोशिश की, पर उसके बाद भी दाग तो पूरी शान से चिपका हुआ था। उसकी हालत को देख रामदास काका हंसते हुए बोले, ‘देखो तुम दूसरों की गलतियाँ ढूंढने में इतने व्यस्त थे कि तुम्हें अपनी हालत का एहसास ही नहीं हुआ।’ उनकी बात सुन बंटी थोड़ा शर्मिंदा हुआ, पर हंसी नहीं रोक पाया और अंत में हँसते-हँसते ही बोला, ‘अरे काका, ये दर्पण तो बड़ी धोखेबाज चीज़ है!’ रामदास काका ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘बिलकुल नहीं। ये दर्पण हमें हमारी असलियत दिखाता है। इसलिए सबसे पहले ख़ुद, ‘ख़ुद’ का दर्पण बनो और दूसरों की गलतियाँ ढूंढने से पहले खुद को देख लो। हो सकता है, हम भी किसी दाग-धब्बे के साथ घूम रहे हों और हमें पता ही न हो।’
कहने की जरूरत नहीं है दोस्तों कि उस दिन के बाद, बंटी ने दूसरों की गलतियाँ ढूंढने की बजाय अपनी गलतियों पर ध्यान देना शुरू कर दिया था। गांव वाले भी अब राहत की सांस ले रहे थे। अब जब भी कोई बंटी से कहता, ‘भाई, मेरी कोई गलती हो तो बताओ’, तो बंटी हंसते हुए जवाब देता, ‘पहले खुद देखो, शायद तुम्हारी शर्ट पर भी तुम्हें दाग दिख जाये!’
दोस्तों, अब आप समझ ही गए होंगे कि पूर्व में मैंने क्यों कहा था कि दूसरों की गलतियाँ ढूंढना आसान है, लेकिन कभी-कभी हमें खुद पर भी ध्यान देना चाहिए। हो सकता है, हम भी दागदार शर्ट पहनकर आलोचना करने निकल पड़े हों! तो अगली बार दोस्तों, जब आप दूसरों को सुधारने जाएं, पहले खुद पर एक नजर डाल लें, शायद आप भी हंसी के पात्र बनने से बच जायें।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
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