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दोस्त हो दर्पण जैसा…

  • Writer: Nirmal Bhatnagar
    Nirmal Bhatnagar
  • Apr 10, 2024
  • 3 min read

Apr 10, 2024

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…



दोस्तों, अगर मैं अपने जीवन में पलट कर देखता हूँ तो सच मैं ख़ुद को बहुत खुश क़िस्मत पाता हूँ क्योंकि ईश्वर की कृपा से आज भी मैं विद्यालय के दोस्तों के साथ मज़े से हूँ। अर्थात् मेरे दोस्तों की सूची में आज भी कई सारे नाम मेरे विद्यालयीन दोस्तों के हैं। मेरी नज़र में इसकी मुख्य वजह, समझना और समझा जाना एवं स्वीकार करना और स्वीकार किया जाना है। अपनी बात को मैं आपको एक घटना से समझाने का प्रयास करता हूँ।


बात वर्ष १९९० की है जब मैंने कक्षा बारहवीं उत्तीर्ण करने के पश्चात ड्राप लेकर पीईटी याने प्री इंजीनियरिंग टेस्ट की तैयारी करने का निर्णय लिया था। हालाँकि यह मेरे लिये उधार पर लिये गये सपने से अधिक कुछ नहीं था क्योंकि यह निर्णय मैंने अपने दोस्त के साथ बने रहने के लिए लिया था। अन्यथा मैं कक्षा ग्यारहवीं से ही कंप्यूटर के क्षेत्र में अपना छोटा सा व्यवसाय स्थापित कर चुका था। ख़ैर इंजीनियरिंग का सपना था भले ही उधार का लेकिन आधे अधूरे मन से ही सही मैंने अपनी ओर से इसकी तैयारी शुरू कर दी थी।


तैयारी के हिसाब से मुझे परीक्षा के कई माह पूर्व अपने परिणाम का एहसास हो गया था। लेकिन जिस तरह कोई भी बच्चा पहले से हार नहीं मानता और परीक्षा परिणाम के समय चमत्कार की आस रखता है, ठीक वैसी ही कुछ स्थिति मेरी भी थी। मैंने भी परीक्षा के कुछ समय पूर्व इंदौर जाकर अभ्यंकर सर की क्लास जॉइन करने का निर्णय लिया। विचार पक्का होते ही मैंने सबसे पहले अपने प्रिय मित्र मुकेश मेहरा से संपर्क किया और उसे भी इस कोर्स को जॉइन करने के लिए राज़ी कर लिया, जिससे हमारा साथ पढ़ाई के समय भी बना रहे।


चूँकि यह एक क्रैश कोर्स था, जिसमें हमारी कक्षा लगातार ५ घंटे चलती थी, इसलिए मुकेश और मैंने इंदौर में रहकर ही पढ़ने का निर्णय लिया और वहीं एक कमरा लेकर शिफ्ट हो गए। शुरू के तो कुछ दिन सब-कुछ ठीक चला लेकिन जल्द ही हमें एहसास हुआ कि रोज़ बाज़ार में खाना खाकर तय बजट में इंदौर में रहना संभव नहीं हो पाएगा। इसलिए हमने अब अपने कमरे पर ही खाना बनाने का निर्णय लिया और घर के काम को आपस में बाँट लिया।


एक दिन मुकेश सुबह-सुबह बड़े ग़ुस्से में मुझ पर चिढ़ता हुआ बोला, ‘मैं कोई नौकर नहीं हूँ तेरा, जो रोज़ तुझे नाश्ता-खाना बना कर खिलाऊँ और उसके बाद झूठे बर्तन माँज कर रखूँ। असल में खाना बनाना या किचन का कार्य करना मुझे ना तो आता था और ना ही करना पसंद था, इसलिए इस सारे कार्य की ज़िम्मेदारी मुकेश के ऊपर थी। लगभग ५-७ मिनिट तक मुकेश मुझ पर चिढ़ता रहा और मेरी तमाम ग़लतियाँ गिनाता रहा और मैं चुपचाप, बिना कोई प्रतिक्रिया दिए उसकी बात सुनता रहा।


कुछ देर बाद जब उसका ग़ुस्सा शांत हुआ तो वह एकदम से बोला, ‘ग़ुस्सा करने या चिढ़ने से होगा क्या? बाद में भी खाना तो मुझे ही बनाना है।’ इतना कह कर मुकेश ने पोहा बनाना शुरू कर दिया।’ असल में दोस्तों मुकेश मुझे उतने ही अच्छे से जानता था, जितना मैं ख़ुद को जानता हूँ और शायद यही स्थिति मेरी भी थी। इसीलिए मुकेश जब तक इस दुनिया में था हम दोनों साथ ही रहे। इसीलिए दोस्तों मैंने इस लेख की शुरुआत में कहा था, ‘सच्ची मित्रता का अर्थ है, समझना और समझा जाना एवं स्वीकार करना और स्वीकार किया जाना।’ तभी तो दोस्तों मित्र हमारे चरित्र, हमारे अंतर्मन, हमारी सोच का दर्पण बन पाता है और इस दर्पण में हम दूसरों की नज़रों से स्वयं को देख पाते हैं। एक बार अपने बचपन के मित्रों को याद कर मेरी बात पर विचार कर देखियेगा ज़रूर…


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

 
 
 

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