Nirmal Bhatnagar
धन-दौलत सब कुछ नहीं…
Nov 18, 2023
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, संत, महात्मा या साधु ही नहीं; गृहस्थ भी तमाम तृष्णाओं से दूर रहकर अपना जीवन जी सकते हैं। सुनने में यह ज़रूर थोड़ा अटपटा या असंभव सा लगता हैं, लेकिन जिन लोगों ने गृहस्थ रहते हुए आत्मिक शांति और संतुष्टि के साथ जीवन जीने को अपना लक्ष्य बनाया है, उन सभी ने तृष्णाओं पर विजय पाकर अपना जीवन जिया है। अपनी बात को मैं आपको प्रसिद्ध संत पुरंदर के जीवन की एक घटना से समझाने का प्रयास करता हूँ।
संत पुरंदर वैसे तो गृहस्थ थे, लेकिन उसके बाद भी अपना जीवन लोभ, काम, क्रोध, मोह आदि जैसे भावों से दूर रहते हुए जिया करते थे। उनकी जीवन शैली बड़ी साधारण थी। अपनी दैनिक ज़रूरतों की पूर्ति के लिए वे दो-तीन घरों में भिक्षाटन के लिए जाया करते थे और वहाँ से जो भी २-३ मुट्ठी अनाज मिलता था, उससे वह अपनी और अपने परिवार की ज़रूरतों को पूरा कर लिया करते थे और उसके बाद अपना पूरा दिन लोगों की सेवा करते हुए बीता दिया करते थे।
एक दिन विजयनगर के राजपुरोहित ने महाराजा कृष्णदेव राय कहा, ‘राजन, संत पुरंदर गृहस्थ होकर भी राजा जनक की तरह विकारों याने काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि से मुक्त हैं। वे अपना पूरा समय लोगों को ज्ञान देने और ज़रूरतमंदों की सेवा करने में लगा देते हैं। स्वार्थ की बात तो मैंने उनके मन में आते हुई भी नहीं देखी।’ इतना सुनते ही राजा कृष्णदेव राय हंसते हुए बोले, ‘भला गृहस्थ रहकर कौन निर्लोभ रहा है? साथ ही गृहस्थ रहकर कामवासना से बचना नामुमकिन है। तुम ही सोच कर देखो अगर यह संभव होता तो सभी मनुष्य अपने मन और शरीर को साध नहीं लेते? अपने जीवन को सार्थक नहीं बन लेते?’ इतना सुनते ही राजपुरोहित बोले, ‘महाराज, यक़ीन मानिए अपने मन और शरीर को साध कर जीवन सार्थक बनाना संभव है। आपको बस संत पुरंदर और माँ सरस्वती की तरह जीवन जीना सीखना होगा। आप स्वयं भी ऐसा कर सकते हैं।’
राजपुरोहित की बातों से राजा कृष्णदेव राय के सम्मान को ठेस लग गई। वे थोड़ा खिन्न होते हुए बोले, ‘चलिए, आपकी कही बात के अनुसार हम भी संत पुरंदर की साधना देख लेते हैं। आप संत पुरंदर से आग्रह करें कि वे राजभवन से भिक्षा ले लिया करें।’ राजपुरोहित ने राजा की आज्ञा अनुसार संत पुरंदर से राज भवन से भिक्षा लेने का निवेदन करा, जिसे संत पुरंदर ने यह कहकर ठुकरा दिया कि मेरी आवश्यकता की पूर्ति अपने कुटुंब जनों से मिली भिक्षा से ही हो जाती है। ऐसे में भिक्षा के लिए मैं राजभवन जाकर क्या करूँगा? लेकिन राजपुरोहित भी कहाँ मानने वाले थे, वे संत पुरंदर के पीछे तब तक पड़े रहे जब तक उन्होंने राजभवन से भिक्षा लाने का निवेदन स्वीकार नहीं कर लिया।
अगले दिन जब संत पुरंदर भिक्षा लेने राजभवन पहुँचे, तो वहाँ से उन्हें अपनी ज़रूरत पूर्ण करने लायक़ चावल मिलने लगे, जिन्हें संत अपनी सहज प्रसन्नता के साथ स्वीकार लिया करते थे। अब तो यह रोज़ का उपक्रम बन गया था जिसे देख दिन-प्रतिदिन राजा कृष्णदेव राय की ख़ुशी बढ़ती ही जा रही थी क्योंकि वे संत के राजभवन से भिक्षा लेने का अर्थ कुछ और ही लगा रहे थे। एक दिन राजा ने राजपुरोहित जी से कहा, ‘राजपुरोहित जी, देख लिया आपके संत की तपस्या को! आजकल उनकी प्रसन्नता देखते ही बनती है।’ ‘मैं समझा नहीं?’ राजपुरोहित जी आश्चर्य के साथ बोले। इस पर राजा कृष्णदेव राय बोले, ‘चलिए हम दोनों संत पुरंदर जी के पास चलते हैं। वहाँ आपको सब कुछ समझ आ जाएगा।’
इतना कहते हुए राजा, राजपुरोहित जी को साथ लेकर संत पुरंदर जी के घर पहुँचे। वहाँ उन्होंने देखा कि संत पुरंदर जी की पत्नी राजमहल से मिले चावल को बीन याने साफ़ कर रही थी। राजा कृष्णदेव राय उनकी और देखते हुए बोले, ‘बहन यह क्या कर रही हो?’ इस पर संत की पत्नी बोली, ‘अरे, आजकल यह न जाने कहां से भिक्षा लाते हैं, इन चावलों में कंकर पत्थर भरे पड़े हैं।’ इतना कहते हुए उन्होंने चावलों में से निकले कंकड़-पत्थरों को उठाया और उन्हें फेंकने के लिए बाहर चल दी। उन्हें ऐसा करते देख राजा एकदम चौंकते हुए बोले, ‘बहन! यह सब कंकड़-पत्थर नहीं, हीरे-मोती हैं। इन्हें कहाँ फेंकने जा रही हैं।’ इतना सुनते ही सरस्वती देवी मुस्कुराई और बोली, ‘पहले हम भी यही सोचते थे, पर अब जब से भक्ति और सेवा की संपत्ति मिल गई, इनका मूल्य कंकड़ पत्थर के ही बराबर रह गया है महाराज!’
दोस्तों, मुझे नहीं लगता कि हमें राजा या राजपुरोहित की प्रतिक्रिया पर चर्चा करने की ज़रूरत है क्योंकि अब आप गृहस्थ रहते हुए आत्मिक शांति और संतुष्टि के साथ जीवन जीने सूत्र समझ ही चुके होंगे। लेकिन साथ ही आपको यह भी लग रहा होगा कि यह क़िस्सा आज के संदर्भ में बेमानी होगा क्योंकि आज के भौतिक युग में ऐसा करना तो दूर, सोचना भी मुश्किल होगा। लेकिन यक़ीन मानियेगा दोस्तों, आज भी पैसों और धन-दौलत के प्रति यही नज़रिया आपको जीवन का असली सुख दिलवा सकता है। बस आपको धन-दौलत के विषय में अपनी एक धारणा को बदलना होगा वह यह कि धन-दौलत ही सब कुछ नहीं है। वह तो बस एक साधन है जिसकी सहायता से हमें अपनी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करना है। एक बार विचार कर देखियेगा…
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
nirmalbhatnagar@dreamsachievers.com