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धन नहीं, उसे देने का भाव आपको दिलाता है सम्मान…

Writer's picture: Nirmal BhatnagarNirmal Bhatnagar

May 9, 2024

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों मेरी नज़र में हर चीज को देखने के दो पहलू होते हैं और आप कौन सा पहलू देखेंगे यह आपका नज़रिया निर्धारित करता है। अपनी बात को मैं आपको एक परिचित के साथ आज हुई मुलाक़ात के आधार पर समझाने का प्रयास करता हूँ। जैसा कि सामान्यतः होता है मैंने भी मुलाक़ात के दौरान चर्चा सामान्य बातचीत याने हाल-चाल पूछते हुए शुरू करी। कुछ देर पश्चात जब मैंने उनसे लंबे समय तक नज़र ना आने याने ना मिल पाने की वजह पूछी तो वे बोले, ‘व्यवसायिक ऊँच-नीच के जाल में फँस गया था।’ जब मैंने उन्हें कुछ समझाने का प्रयास किया तो वे बोले, ‘निर्मल जी, यह सब फ़ालतू की बातें छोड़ो आज की तारीख़ में धर्म और सच्चाई का नहीं अपितु धन का सम्मान होता है; उसी की पूछ परख होती है। अगर आपके पास धन होगा तो आपके पास दोस्त-रिश्तेदार सब होंगे।’ इतना कहकर वे एक पल के लिये रुके फिर बात आगे बढ़ाते हुए बोले, ‘आप मानो या ना मानो आपकी इच्छा, मैं तो एक ही बात जानता हूँ आज के युग में तो बाप बड़ा ना भैया, सबसे बड़ा रुपैया!’


बातचीत की दिशा और लहजे से मुझे उनकी मानसिक स्थिति साफ़ नज़र आ रही थी। चूँकि मैं उनकी बात से सहमत नहीं था, इसलिए मैंने बातचीत को वहीं ख़त्म किया और उनके मत का सम्मान करते हुए आगे बढ़ गया। जी हाँ दोस्तों, मैं वाक़ई इस विचार के पूर्णतः ख़िलाफ़ हूँ कि ‘पैसा आपको इज्जत दिलाता है।’ अपनी बात को मैं आपको एक कहानी के माध्यम से समझाने का प्रयास करता हूँ-


बात कई साल पुरानी है एक गाँव में एक बहुत ही अमीर लेकिन कंजूस सेठ रहा करता था। उसकी कंजूसी का आलम यह था कि वो पैसा बचाने के चक्कर में कई बार मंदिर और गुरुद्वारे में चलने वाले भंडारे या लंगर में भोजन कर आया करता था। हालाँकि वह अपने इलाक़े का सबसे अमीर व्यक्ति था लेकिन उसके बाद भी उसकी समाज में कोई इज्जत नहीं थी क्योंकि वह ना तो किसी की मदद किया करता था और ना ही कभी किसी सामाजिक कार्य के लिए दान दिया करता था।


एक दिन उसे पता चला कि गाँव के मंदिर में एक संत का आगमन हुआ है जो प्रतिदिन धार्मिक कथा सुनायेंगे और कथा के पश्चात वहाँ प्रतिदिन भोजन प्रसादी का वितरण होगा। भोजन के लालच ने कंजूस सेठ ने भी उस कथा में जाने का निर्णय लिया और तय समय पर पांडाल में पहुँच गया। उस दिन कथा में संत ने वेद मंत्रों के साथ उपनिषदों की कथाओं की सटीक व्याख्या करी। जिसे सुनकर कंजूस सेठ हैरान रह गया। उसने कभी सोचा ही नहीं था कि वेद और उपनिषद को वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर भी परखा जा सकता है और साथ ही वैदिक सिद्धान्त व्यावहारिक व वास्तविकता पर आधारित एवं सत्य-असत्य का बोध कराने वाले हो सकते हैं।


कंजूस को अब कथा में रस आने लगा और भगवान से मिली सद्बुद्धि के कारण वह प्रतिदिन कथा में आने लगा। कथा पांडाल में कोई भी इंसान उस सेठ की इज्जत नहीं करता था और वे सब अभी भी यही मानते थे कि सेठ भंडारे के लालच में रोज़ कथा सुनने आ जाता है। लेकिन सेठ को अब इन बातों की कोई चिंता ही नहीं थी। वह तो प्रतिदिन तय समय से कथा स्थल पर पहुँच जाता था और पूरे ध्यान से कथा सुनता था। इतना ही नहीं, कथा के समाप्त होते ही वह सबसे पहले संत से अपनी शंका का समाधान पूछता और उसके बाद ही वहाँ से वापस घर जाता। शंकाओं के समाधान और सत्य-असत्य के ज्ञान के कारण कंजूस की अब कथा में रुचि बढ़ती ही जा रही थी।


एक दिन वैदिक कथा के अंत में कथावाचक संत ने सभी को सूचना दी कि कल अंतिम कथा में भगवान को छप्पन भोग का प्रसाद चढ़ाया जाएगा और फिर भंडारे में भी उसी छप्पन भोग को परसा जाएगा। इसलिए जो भी श्रद्धालु अपनी ओर से कुछ भी लाना चाहे या दान करना चाहे तो कर सकता है। अगले दिन कथा में आने वाले सभी लोग कुछ ना कुछ साथ लेकर आए। इन लोगों में कंजूस सेठ भी था जिसने श्रद्धा वश अपने सर पर एक मैले कपड़े में बंधी गठरी रख रखी थी।


चूँकि उस दिन दान देने वाले लोगो की संख्या बहुत ज्यादा थी और दूसरी बात गाँव वाले सेठ की कंजूसी से भली भाँति परिचित थे इसलिए कोई उन्हें आगे जाने का मौक़ा ही नहीं दे रहा था। सेठ को भी मानो कोई जल्दी नहीं थी इसलिए वह आराम से अपनी बारी की प्रतीक्षा करने लगा। अंत में जब सब लोगों ने दान कर दिया तब सेठ अपनी गठरी लेकर आगे बढ़ा और सबसे पहले संत को प्रणाम किया और फिर उस गठरी को उनके चरणों में रख दिया। उसे ऐसा करते देख वहाँ मौजूद सभी लोग हंसने लगे और उसकी कंजूसी के क़िस्सों को एक-दूसरे को सुनाने लगे। एक सज्जन ने तो संत तक को यह कह दिया कि यह महाशय महा कंजूस है और आज तक इन्होंने कभी भी किसी व्यक्ति की मदद नहीं करी है और ना ही किसी अच्छे प्रयोजन के लिए दान दिया है। सेठ ने सभी की बातों को नज़रंदाज़ किया और वापस अपने स्थान पर जाने लगा, लेकिन संत ने उसे रोका और उसे अपने बराबर वाले आसान पर बैठा लिया। कुछ देर बाद संत ने जब उस गठरी को खोला तो उसमें ढेर सारे रत्न और गहने थे। इतनी दौलत को एक साथ देख वहाँ मौजूद सभी लोगों की आँखें विस्मय से फटी की फटी रह गई। अब वे सभी उस कंजूस सेठ के दान पर आश्चर्य मिश्रित प्रतिक्रिया कर रहे थे।


दोस्तों, अब अगर मैं आपसे पूछूँ कि कंजूस सेठ को संत के बराबर वाला आसन और मान-सम्मान क्यों मिला तो आप में से कई लोग कहेंगे कि ‘धन-दौलत के कारण…’ तो मैं आपसे कहूँगा कि सेठ तो रोज़ उस कथा में आता था और सामान्य लोगों के बीच रोज़ ही ज़मीन पर ही बैठा करता था, तब तो उसे कोई पूछता भी नहीं था।’ मेरी नज़र में यह उसके धन का आदर नहीं, बल्कि उसके महान त्याग याने दान का आदर था; देने के भाव का आदर था। जी हाँ दोस्तों, थोड़ा गहराई से सोच कर देखिए, धन तो हमेशा से ही उस सेठ के पास था, लेकिन कभी उसे अपने गाँव में इतना मान-सम्मान नहीं मिला था। आज जैसे ही उसने अपने धन का दान किया वह सम्मानित व्यक्ति बन गया। इसीलिए दोस्तों, मैंने पूर्व में कहा था कि मैं इस धारणा से बिलकुल भी सहमत नहीं हूँ कि ‘बाप बड़ा ना भैया, सबसे बड़ा रुपैया।’ मैं तो हमारे वरिष्ठों द्वारा कही इस बात का पक्षधर हूँ कि ‘ गोधन, गजधन, बाजिधन और रतन धन खान, जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समान॥’


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

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