July 7, 2024
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
दोस्तों, इस दुनिया में स्वयं को या अपनी बात को आसानी से स्वीकारे जाने की आस रखना मेरी नज़र में बेमानी है। यहाँ हर चीज को स्थापित होने में या स्वीकारे जाने में समय लगता है क्योंकि उससे पहले उसे कई तरीक़े से परखा जाता है। अपनी बात को मैं आपको एक कहानी से समझाने का प्रयास करता हूँ। बात कई सौ साल पुरानी है, अपनी शक्तियों से लोगों का भला करने के कारण एक महात्मा की प्रसिद्धि दिन दूनी, रात चौगुनी रफ़्तार से फैल रही थी। जब उनके विषय में राजा के मुख्य दरोग़ा ने सुना तो वह भी उनकी शिक्षा और सिद्धि से बहुत प्रभावित हुआ और मन ही मन उन्हें गुरु मानने लगा। एक दिन उसके मन में महात्मा याने अपने गुरु से मिलने की तीव्र इच्छा उठी। उसने एक झोले में अपनी ज़रूरत का सभी सामान डाला और उसी पल अपने गुरु से मिलने; उन्हें खोजने के लिये घर से निकल पड़ा।
रास्ते में दरोग़ा को एक बहुत ही साधारण सा इंसान नज़र आया जो फटी पुरानी सी धोती और कुर्ता पहने कुछ काम कर रहा था। दरोग़ा ने अपनी अकड़ के साथ रोबदार आवाज़ में उससे अपने गुरु का पता पूछते हुए कहा, ‘क्यों बे, यह महात्मा जी कहाँ मिलेंगे?’ उस व्यक्ति ने दरोग़ा की बात को सुन कर भी अनसुना कर दिया और अपना कार्य पूर्ण तन्मयता के साथ करता रहा। लेकिन दरोग़ा के लिए इस अवहेलना को स्वीकारना आसान नहीं था क्योंकि वह जानता था कि पूरा राज्य उसके नाम से थर-थर काँपा करता था। उसने ग़ुस्से में आकर आव देखा ना ताव; सीधे उस इंसान को अनाप-शनाप कहने लगा।
दरोग़ा की उल्टी-सीधी बातें सुनने के बाद भी वह इंसान एकदम शांत था। इस बात ने दरोग़ा के ग़ुस्से को और बढ़ा दिया और उसने आग-बबूला हो उस व्यक्ति को जोर से ठोकर दे मारी और आगे बढ़ गया। अभी वह दरोग़ा कुछ ही दूर चला था कि उसे एक और आदमी काम करता हुआ दिख गया। उसने उसे आवाज़ देकर बुलाया और फिर से महात्मा का पता पूछने के लिए अपना प्रश्न दोहरा दिया। जिसे सुनते ही वह व्यक्ति एकदम खुश हो गया और पूरी ऊर्जा के साथ बोला, ‘भैया उन्हें कौन नहीं जानता है। वे तो ईश्वर के सच्चे दूत हैं। वे तो वहीं रहते हैं, जहाँ से आप आ रहे हैं। आप ज़रा वापस जाइए कुछ ही दूरी पर आपको उनका आश्रम मिल जाएगा। वैसे मैं भी उन्हीं के दर्शन के लिए जा रहा हूँ। अगर आप चाहें तो मेरे साथ चल सकते हैं।’
दरोग़ा ने सोचा अकेले जाकर परेशान होने से बेहतर इस इंसान के साथ हो लेना अच्छा है। विचार आते ही मन से प्रसन्नचित्त दरोग़ा इस व्यक्ति के साथ हो लिया। कुछ दूर चलने के बाद यह दोनों उसी इंसान के पास पहुँच गये जिन्हें कुछ देर पहले दरोग़ा ने खरी-खोटी सुनाते हुए ठोकर मारी थी। उन्हें देखते ही दरोग़ा के साथ आया व्यक्ति उनके चरणों में लेट गया और उन्हें दण्डवत करते हुए बोला, ‘दरोग़ा जी, यही वे महात्मा हैं जिन्हें आप गुरु मानते हैं और जिन्हें खोजते हुए आप इतनी दूर चल कर आये हैं।’
फटी-पुरानी धोती-कुर्ता पहने अपना कार्य कर रहे व्यक्ति की हक़ीक़त जान दरोग़ा लज्जित था। वह तुरंत उन सज्जन के चरणों में गिर पड़ा और उनसे माफ़ी माँगते हुए बोला, ‘महात्मन, मुझे क्षमा कर दीजिए, मुझसे अनजाने में अपराध हो गया है।’ दरोग़ा की बात सुन महात्मा ज़ोर से हंसते हुए बोले, ‘भाई इसमें बुरा मानने की क्या बात है? यही तो दुनिया का दस्तूर है। इंसान मिट्टी का घड़ा भी ख़रीदता है तो ठोक-बजा कर देखता है। फिर तुम तो यह देखने आये थे कि मैंने सही गुरु चुना है या नहीं।’
वैसे दोस्तों, बात तो गुरु की एकदम सही है। आम तौर पर हर इंसान किसी भी चीज को परखे बिना नहीं लेता है, ऐसे में ख़ुद को या अपनी बात को आसानी से स्वीकारे जाने की आस रखना ही ग़लत है। अगर आप इस दुनिया से कुछ भी चाहते है तो सबसे पहले धैर्य, सहनशीलता और विनम्रता की शक्ति को पहचानें; उसे अपने जीवन के हर क्षेत्र में अपनायें।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
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