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Writer's pictureNirmal Bhatnagar

निंदा, शिकायत या दोष ना दें…

Jan 19, 2024

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…


दोस्तों, दोष निकालकर निंदा करना एक ऐसी आदत है जो अच्छे से अच्छे इंसान को भी पूर्णतः नकारात्मक बना सकती है क्योंकि निंदा करना, ग़लतियाँ खोजना, दोष निकालना आदि कुछ ऐसे कार्य हैं जो सामान्यतः सकारात्मक चीजों को नज़रंदाज़ कर ही खोजे जा सकते हैं। वैसे मैं जो कह रहा हूँ यह कोई नई बात नहीं है, लगभग हम सभी लोग इसे जानते हैं। लेकिन इसके बाद भी ज़्यादातर लोग ‘दर्द में संतुष्टि’ याने ‘पेन में प्लेजर’ खोजने की अपनी आदत के कारण इसमें उलझकर रह जाते हैं।

ग़लत रास्तों पर चलकर ख़ुशी पाने का यह तरीक़ा अक्सर लोगों से इतिहास बनाने यानी कुछ बहुत ही बड़ा करने का मौक़ा छीन लेता है। ऐसे लोग अक्सर अपने समय, ज्ञान और ऊर्जा का सकारात्मक प्रयोग नहीं कर पाते हैं। अपनी बात को मैं आपको एक काल्पनिक घटना से समझाने का प्रयास करता हूँ।


बात कई साल पुरानी है, एक बार इंग्लैंड के लंकाशायर के कुछ लोगों ने वहाँ विष का सबसे अनोखा और अद्वितीय गिरजाघर बनाने की योजना बनाई और उसे मूर्त रूप देने के लिए वे लोगों को इस विषय में बताने लगे। धीमे-धीमे कुछ लोगों के इस छोटे से विचार ने एक बड़ा रूप ले लिया और लोग इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगे। चर्च बनाने की इस मुहिम में जल्द ही नगरपालिका के मेयर जैसे प्रतिष्ठित और प्रभावशाली लोग भी यथेष्ट धन का दान कर जुड़ गये और जल्द ही एक बड़ा गिरजाघर बनने लगा। कंस्ट्रक्शन पूर्ण होने के बाद इस गिरजाघर को पूरी दुनिया से चुन-चुन कर मंगाये गए सामान से सजाया गया और फिर इसे एक भव्य उद्घाटन समारोह के साथ आम जनता को सौंप दिया गया।


गिरजाघर में अब दूर-दूर से लोग प्रार्थना करने आने लगे, जो उसकी भव्यता और सुंदरता देखते ही वाह-वाह करने लगते। गिरजाघर की बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए एक दिन नगरपालिका ने एक बैठक बुलाई जिसका उद्देश्य सभी से एक प्रस्ताव पारित करवाना था कि यह गिरजाघर विश्व का सबसे भव्य और सुंदर गिरजाघर है। तय दिन, तय समय पर सभा प्रारम्भ हुई जिसमें प्रस्ताव के बाद सभी सदस्यों ने गिरजाघर पर अपनी राय देना शुरू कर दी। पहले सदस्य ने गिरजाघर को अनावश्यक रूप से लंबा बताया, तो दूसरे सदस्य ने उसकी चौड़ाई पर टीका-टिपण्णी कर दी। कोई सदस्य पूर्णतः पूर्वी, तो कोई पाश्चात्य शैली का ना बनाए जाने के कारण नाराज़ था।


बहस कई घंटों तक चलती रही लेकिन कोई सर्वसम्मत निष्कर्ष नहीं निकला। इसके पश्चात तो बैठकों का दौर चला और आम लोगों में गिरजाघर की सुंदरता और भव्यता चर्चा का विषय बन गई। एक दिन जब इस विषय पर बैठक चल रही थी तब मेयर वहाँ पहुँचे और सभी सदस्यों को संबोधित करते हुए बोले, ‘मित्रों आप सभी लोग इतने महीनों से अनावश्यक वाद-विवाद में लगे हुए हो और इसे अच्छा बुरा कहकर अपना समय बर्बाद कर रहे हो। तुमसे बेहतर तो सामान्य दर्शनार्थी या भक्त लोग हैं, जो ‘गिरजाघर कैसा है?’, इस विषय में उलझे बिना वहाँ प्रार्थना कर रहे हैं; उसकी भव्यता और सुंदरता का आनंद लूट रहे हैं। गिरजाघर अब जैसा भी है तुम सबका है, आम लोगों की आस्था का केंद्र है। इस बहस को बंद करो और आनंद से रहो।


कहते हैं दोस्तों, मेयर के स्पष्ट समझाने के बाद भी यह महत्वपूर्ण बात किसी के समझ में नहीं आई और गिरजाघर को भव्य और सुंदर घोषित करने की यह बहस कई सालों के बाद; आज भी जारी है। अर्थात् गिरजाघर दुनिया में सबसे सुंदर और भव्य है या नहीं, यह विवाद अभी तक भी समाप्त नहीं हुआ है और तो और इस विवाद में हम में से ज़्यादातर लोग भी सम्मिलित हो गये हैं। जी हाँ दोस्तों, अगर थोड़ा गंभीरता से सोचेंगे तो पायेंगे कि सामान्यतः हम में से ज़्यादातर लोग रोज़ कभी अपने जीवन में तो कभी दूसरे के काम में कमियाँ ढूँढने में लगे रहते हैं और मिलने पर उसका दोष दूसरों पर मढ़ते हैं। कई बार यह कार्य सिर्फ़ और सिर्फ़ ईर्ष्यावश मज़े या झूठी प्रसन्नता के लिये किया जाता है। दूसरों के दर्द में संतुष्टि खोजने की अपनी इस आदत के चलते ऐसे लोग मेरी नज़र में अपना जीवन जीना ही भूल जाते हैं और अपने पूरे जीवन को बर्बाद कर देते हैं। दोस्तों, हम सभी को तो गिरजाघर के उन भक्तों जैसा बनना चाहिए जो अनावश्यक के विवाद में पड़े बिना, भक्ति का आनंद ले रहे थे। जी हाँ साथियों, जीवन के प्रति सिर्फ़ और सिर्फ़ यही नज़रिया आपको समय, ज्ञान और ऊर्जा का सकारात्मक प्रयोग करने लायक़ बनाएगा।


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

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