Mar 30, 2024
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
दोस्तों, हाल ही मैं एक यूनिवर्सिटी के शिक्षकों के लिए सेमिनार करने का मौक़ा मिला। सेमिनार में प्रश्नोत्तर राउंड के दौरान एक प्रोफेसर खड़े हुए और बोले, ‘सर, आपने जो भी बातें बताई, वह बिलकुल सही है। लेकिन आजकल बच्चे लगातार कक्षा को डिस्टर्ब करते हैं और समझाओ तो समझते भी नहीं हैं। अचरज तो तब होता है, जब दंड देने पर भी वे ख़ुशी मनाते हैं।’ जब मैंने उनसे विस्तार से इस विषय में चर्चा करी, तो मुझे समझ आया कि कुछ बच्चों की हरकतों को आधार बना उन्होंने सभी छात्रों के लिए धारणा बना ली है। इतना ही नहीं अपनी ग़लत धारणा के कारण ही वे कुछ छात्रों की गलती की सजा सभी छात्रों को दे रहे थे। मैंने प्रोफ़ेसर साहब को एक कहानी सुनाने का निर्णय लिया जो इस प्रकार थी-
बात कई साल पुरानी है, एक बार कर चोरी के आरोप में तीन व्यापारियों को पकड़कर राजा के सम्मुख पेश किया गया। राजा ने जब मंत्री से इनके अपराध के विषय में पूछा तो मंत्री ने पहले आरोपी को आगे कर राजा को बताया कि ‘महाराज, इनके खातों की जब हमने गहराई से जाँच करवाई तो उसमें २५ प्रतिशत की कर चोरी पकड़ाई है।’ राजा ने उस व्यापारी की आँखों में आँखें डालते हुए कहा, ‘मुझे आपसे यह उम्मीद नहीं थी, चलिए घर जाइए।’
पहले आरोपी के जाने के बाद मंत्री ने दूसरे आरोपी को आगे करते हुए राजा से कहा, ‘महाराज, इनके खातों की जाँच करवाने पर ५० प्रतिशत की कर चोरी पकड़ाई है।’ राजा ने दूसरे आरोपी की आँखों में आँखें डालते हुए कहा, ‘तुमने यह ठीक नहीं किया; तुम्हें लज्जा आनी चाहिए थी। चलिए, अपने घर जाइये।’ राजा से सजा सुन दूसरा आरोपी सर झुकाकर वहाँ से चला गया। उसके जाते ही मंत्री ने तीसरे आरोपी को आगे करते हुए कहा, ‘महाराज, इनके खातों में भी ५० प्रतिशत की कर चोरी पकड़ाई है।’ राजा ने उसे देखते ही सजा सुनाते हुए कहा, ‘मंत्री जी, इनका अपराध गंभीर है। इन्हें छः माह के लिए कारागार में डाल दिया जाए।’
राजा का निर्णय सुन मंत्री उलझन में पड़ गया। उसने राजा के दंड विधान पर उँगली उठाते हुए कहा, ‘महाराज, मैं समझ नहीं पाया कि आपने लगभग एक जैसे आरोपों के लिए भिन्न-भिन्न दंड क्यों दिए? बल्कि यह कहना उचित होगा कि तीन में से दो को तो आपने बिना दंड दिये ही छोड़ दिया और तीसरे को ६ माह के लिए कारागार में डलवा दिया।’ मंत्री का प्रश्न सुन राजा मुस्कुराए और बोले, ‘मंत्री जी, मैं आपके प्रश्न का उत्तर अवश्य दूँगा लेकिन उससे पहले मैं चाहता हूँ कि आप तीनों आरोपियों से एक-एक बार मिल आएँ।’
मंत्री ने राजा के आदेश का पालन किया और अगले दिन सुबह-सुबह ही पहले आरोपी, जिसे राजा ने कहा था कि ‘मुझे आपसे यह उम्मीद नहीं थी…’, के यहाँ पहुँचा तो यह देख के हैरान रह गया कि वहाँ हर कोई रो रहा था। जब उसने वहाँ मौजूद लोगों से इस विषय में पूछा तो पता चला कि आरोपी ने राज दरबार से आते ही एक पत्र लिखा ‘मैं राजा की अपेक्षा पर खरा नहीं उतरा। इसलिए अब मेरे जीवित रहने का कोई औचित्य नहीं।’ और आत्महत्या कर ली। सच्चाई का पता चलते ही मंत्री सकते में आ गया।
इसके पश्चात वह भारी मन से दूसरे आरोपी के घर पहुँचा तो देखा कि वहाँ तो ताला लगा हुआ है। उसने तुरंत पड़ोसियों से इस विषय में पूछना शुरू किया तो पता चला कि उसने भी राज दरबार से आते ही कुछ बैलगाड़ियाँ मँगवाई और उन पर घर का सारा सामान लाद कर गाँव छोड़ कर चला गया। जाते समय वह लोगों से कह रहा था कि ‘मैं राजा की दृष्टि में अपना सम्मान खो चुका हूँ। इसलिए अब मेरे लिये इस नगर में सिर उठाकर चलना संभव नहीं है। इसलिए अब मैं परिवार सहित कहीं दूर जा रहा हूँ।’ इतना सुनते ही मंत्री आश्चर्य में डूब गया।
अंत में वो तीसरे आरोपी से मिलने कारागार पहुँचा। वहाँ उसने देखा कि तीसरा आरोपी कारागार में भी मज़े में था और अपनी मूँछों को ताव देता हुआ कसरत कर रहा था।’ मंत्री ने उससे प्रश्न किया, 'कैसे हो?’ तो वह मुस्कुराते हुए बोला, ‘बहुत बढ़िया, बस आपसे एक बहुत छोटा सा आग्रह है। यहाँ जेल के खाने का मेनू बड़ा छोटा सा है, कृपया इसमें कुछ और आइटम जुड़वाइए।’ उसका जवाब सुन मंत्री आश्चर्यचकित था। उसने अगला प्रश्न किया, ‘आपको राजा ने ६ महीने के कारावास की सजा सुनाई है। आपको तनाव नहीं होता?’ आरोपी मुस्कुराते हुए बोला, ‘अजी तनाव! कैसा तनाव, हमारा तो सारा तनाव, अब आपका तनाव है। हम तो अब राजकीय अतिथि हैं। अच्छा हुआ हवा-पानी बदल गया। चार नए मित्र भी मिल गये हैं।’
उसका जवाब सुन मंत्री हैरान था। वह उसी पल राजा के पास पहुँचा और उन्हें पूरा वृतांत कह सुनाया और अंत में बोला, ‘महाराज में तीनों आरोपियों की प्रतिक्रिया देख हैरान हूँ। जिन्हें आपने छोड़ा था उन्होंने स्वयं को बहुत कड़ी सजा दी और जिसको आपने सबसे ज़्यादा सजा दी थी, वह तो मज़े में है।’ मंत्री की प्रतिक्रिया सुन राजा एक दम गंभीर स्वर में बोले, ‘मंत्री जी अब आप लज्जावान और निर्लज्ज में क्या अन्तर होता है, समझ गये होंगे।’ याद रखियेगा, ‘निर्लज्ज को दण्डित नहीं किया जा सकता है और लज्जावान अपने दण्ड का चयन स्वयं कर लेता है।’
कहानी पूरी होते ही मैंने प्रोफ़ेसर से कहा, ‘सर, कहीं ना कहीं आपका सारा फ़ोकस बच्चों के व्यवहार पर केंद्रित हो गया है। मेरा मानना है कि आपको बदमाश बच्चों पर से ध्यान हटा कर कक्षा के अन्य बच्चों को ध्यान में रखते हुए पढ़ाना चाहिए। जिससे ग़लत व्यक्ति के कारण सही व्यक्ति का नुक़सान ना हो। याद रखियेगा, जो निर्लज्ज होगा उसे दंड देने से फ़ायदा नहीं होगा और लज्जावान अगर आपकी कक्षा में गलती करेगा, तो समय के साथ वह ख़ुद को अपने आप ही दंडित कर लेगा और सुधर जाएगा।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
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