Aug 17, 2024
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, किसी विशेष पद पर होना और उस पद के मुताबिक़ व्यक्तित्व और चरित्र होना; दो बिलकुल अलग अलग बात है। अगर आपका लक्ष्य दोनों को एक दूसरे के अनुरूप बनाना है तो आपको ज्ञान, कौशल और नज़रिए के बैलेंस को समझना होगा। लेकिन उससे पहले मैं आपको एक कहानी सुनाता हूँ जिससे आप पूर्व में कही बातों को गहराई के साथ समझ पाएँ। बात कई साल पुरानी है एक महात्मा जी नदी किनारे जाकर उस शिला पर बैठ गये जो सामान्यतः धोबी द्वारा कपड़े धोने के लिए काम में लाई जाती थी।
थोड़ी देर पश्चात रोज़ ही की तरह कपड़ों को धोने के लिए धोबी वहाँ पहुँचा और महात्मा को शिला पर बैठा देख, उनके उठने का इंतज़ार करने के लिए पास ही में बैठ गया। उसे लग रहा था कि महात्मा जी थोड़ी देर में उठ जाएँगे उसके बाद मैं अपना कार्य पूर्ण कर लूँगा। लेकिन उस दिन महात्मा जी भी किसी विचारों में खोये हुए थे, इसलिए वे पिछले 2 घंटों से उसी शिला पर बैठे हुए थे।
अंत में धोबी ने हारकर महात्मा जी निवेदन करने का निर्णय लिया और उनके पास पहुँच कर हाथ जोड़ते हुए बोला, ‘महात्मन, आपके ध्यान में विघ्न डालने के लिए माफ़ी चाहता हूँ। लेकिन नदी के इस घाट पर सिर्फ़ यही एक स्थान है जहाँ पर कपड़े धोये जा सकते हैं। कृपा करके आप आस-पास ही कहीं विराज जाएँ, महात्मा जी ने वैसा ही किया और वे वहाँ से उठकर थोड़ी दूर जाकर बैठ गए।
उनके उठने के पश्चात धोबी ने कपड़ों के बंडल को खोला और उन्हें पछाड़-पछाड़ कर धोने लगा। इस प्रक्रिया में पानी के कुछ छींटे उड़कर महात्मा जी पर जा गिरे और इस वजह से उनका पारा चढ़ गया। अर्थात् अपने ऊपर गंदा पानी गिरने के कारण महात्मा जी को ग़ुस्सा आ गया और वो धोबी को गालियाँ देने लगे। इससे भी जब महात्मा जी को शांति नहीं मिली तो उन्होंने अपनी लाठी उठाई और धोबी को मारने के लिए दौड़े। यह स्थिति बिलकुल वैसी थी, जैसे कोमल सा दिखने वाला सर्प पूँछ पर पैर पड़ते ही डसने के लिए फन फैला लेता है। अर्थात् सर्प की असलियत की पहचान उसकी पूँछ पर पैर पड़ने से होती है, ठीक इसी तरह इंसान की पहचान विपत्ति, परेशानी, दुख, विपरीत स्थितियों के समय किए गए उसके व्यवहार से होती है।
एक ओर जहाँ महात्मा क्रोधित थे, वहीं धोबी एकदम शांत था और सोच रहा था कि ‘महात्मा जी नाराज़ हैं तो अवश्य ही मुझसे कोई अपराध हुआ होगा।’ अतः वह सबसे पहले हाथ जोड़कर महात्मा जी से माफ़ी माँगने लगा। इसपर भी महात्मा जी का ग़ुस्सा शांत नहीं हुआ। वे चिढ़ते और चिल्लाते हुए बोले, ‘दुष्ट तुझमें तो शिष्टाचार है ही नहीं। तुझे कपड़े धोते वक़्त एहसास ही नहीं हुआ कि तू गंदे पानी के छींटे मेरे ऊपर उड़ा रहा है।’ महात्मा की बात पूरी होते ही किसान ने एक बार फिर हाथ जोड़कर माफ़ी माँगी और बोला, ‘महाराज शांत हो जाएँ और मुझ ग़रीब अज्ञानी को माफ़ करें। मुझ गंवार से बड़ी चूक हो गई। लोगों के गंदे कपड़ों से मैल हटाने के प्रयास में मुझे ध्यान ही नहीं रहा कि मेरा कृत्य आपको हानि पहुँचा रहा है। कृपा कर मुझे क्षमा कर दें।’ इतना कहकर धोबी ने सभी धुले हुए कपड़े समेटे और वहाँ से चला गया।
ग़ुस्सा शांत होने पर जब महात्मा जी वापस नदी किनारे मौजूद कपड़े धोने के लिए प्रयोग में लाई गई शिला के पास गए तो यह देख हैरान रह गए कि कपड़े धोने की वजह से शिला पर एकत्र हुआ गंदा पानी मिट्टी के संपर्क से स्वच्छ और निर्मल होकर पुनः नदी के प्रवाह में लुप्त होता जा रहा था और इसके ठीक विपरीत उनके वस्त्र पर उड़ा पानी अब तीव्र उमस और बदबू पैदा कर रहा था। इस अनुभव ने उन्हें गहरी सोच में डाल दिया कि ‘असली महात्मा कौन, मैं या धोबी?’ अंत में महात्मा इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि असली महात्मा तो धोबी ही है क्योंकि उसने संयत रहकर समता के भाव से कर्म करते हुए दाग दूर करे थी और वहीं दूसरी ओर मैं संयमित नहीं रह पाया था।
दोस्तों, अगर आप एक बार फिर पूरी कहानी पर गौर करेंगे तो पाएँगे कि गेरुए वस्त्र पहनने और दाढ़ी रखने के बाद भी महात्मा से दिखने वाले इंसान का व्यवहार महात्मा के समान नहीं था और इसके ठीक विपरीत सांसारिक होते हुए भी धोबी महात्मा सा व्यवहार कर रहा था। अर्थात् महात्मा होते हुए भी महात्मा, महात्मा नहीं था और धोबी महात्मा ना होते हुए भी, महात्मा था। इसीलिए मैंने पूर्व में कहा था दोस्तों, ‘किसी विशेष पद पर होना और उस पद के मुताबिक़ व्यक्तित्व और चरित्र होना दो बिलकुल अलग अलग बात है।’
दोस्तों, अगर आपका लक्ष्य अपने पद के अनुरूप व्यवहार और चरित्र बनाना है तो आपको ज्ञान, कौशल और नज़रिए के बैलेंस को समझना होगा। ज्ञान और कौशल के बूते पर आप पद तो पा सकते हैं, लेकिन पद के अनुरूप व्यक्तित्व बनाने के लिए आपको नज़रिए पर काम करना होगा। सही नज़रिया ही आपके व्यवहार को उचित कर चरित्र का निर्माण करता है।अन्यथा पद होने के बाद भी आपको वह ख़ुशी, शांति और सम्मान नहीं मिल पाएगा जिसके आप हक़दार हैं। इसीलिए मेरे गुरु श्री राजेश अग्रवाल जी हमेशा कहते हैं, ‘प्रतिभा सफलता की अपेक्षा दृष्टिकोण पर अधिक निर्भर करती है।’
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
Comentários