May 21, 2024
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
दोस्तों, ‘नाम’ की अपेक्षा के साथ दान करने के मुक़ाबले सेवा भाव के साथ दान करना आपको ना सिर्फ़ इंसानों का बल्कि भगवान का भी प्रिय बनाता है। इसीलिए सेवा भाव के साथ किए गए दान को सबसे बड़े पुण्य का दर्जा दिया गया है। अपनी बात को मैं आपको एक कहानी से समझाने का प्रयास करता हूँ। बात कई साल पुरानी है राजपुर का राजा बहुत ही दानवीर और प्रजा का बहुत ज़्यादा ख़्याल रखने वाला था। वह हर पल अपनी प्रजा के लिए ना सिर्फ़ चिंतित रहता था, बल्कि उनके जीवन को बेहतर बनाने के लिए कुछ ना कुछ जतन करता रहता था। इसी चक्कर में वह ईश्वर के पूजा-पाठ, ध्यान आदि के लिए भी समय नहीं निकाल पाता था।
एक दिन सुबह-सुबह राजा वन से गुजर रहा था कि उसे एक देव दर्शन हुए। राजा ने देव को प्रणाम करते हुए कहा, ‘प्रणाम देव, आशा करता हूँ सदैव की भाँति अभी भी आपका आशीर्वाद मेरी प्रजा पर बना हुआ होगा और क्या मैं आपसे पूछ सकता हूँ कि आपके हाथ में यह बड़ी सी लाल किताब क्या है?’ देव आशीर्वाद देते हुए बोले, ‘वत्स, यह बहि खाता है। इसमें प्रभु को याद करने और भजन करने वालों के नाम लिखे हैं।’ राजा उत्सुकता वश बोला, ‘देव कृपया देखिए ना इसमें मेरा नाम है भी या नहीं।’ देव महाराज किताब का एक-एक पृष्ठ ध्यान से देखकर पलटने लगे। उनके भाव को देख राजा समझ गया कि इस पुस्तक में उसका नाम नहीं है। वह बड़ी शालीनता के साथ हाथ जोड़ते हुए बोला, ‘देव महाराज! आप चिंतित ना हों, आपके ढूंढने में कोई कमी नहीं है। वास्तव में ये मेरा दुर्भाग्य है कि मैं भजन-कीर्तन के लिए समय नहीं निकाल पाता हूँ और इसीलिए मेरा नाम यहाँ नहीं है।’
आत्म ग्लानि की वजह से राजा उस दिन थोड़ा परेशान रहा। लेकिन तभी उसे प्रजा के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों का ध्यान आया और वह वापस से अपने कार्य में मगन हो गया। कुछ दिन बाद राजा का सामना एक बार फिर देव से हो गया जो इस बार अपने हाथ में बहुत छोटी सी किताब लेकर कहीं जा रहे थे। राजा ने फिर उन्हें प्रणाम करा और फिर पूछा, ‘देव महाराज, आज कौन सा बही खाता लेकर जा रहे हैं?’ देव ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘राजन, आज के बही खाते में उन लोगों के नाम लिखे हैं जिन्हें भगवान बहुत अधिक पसंद करते हैं; जिन्हें वे चाहते हैं।’ बात सुनते ही राजा ने ठंडी साँस भरी, फिर थोड़ा निराशा भरे भाव के साथ बोले, ‘मैं अंदाज़ा लगा सकता हूँ कितने भाग्यशाली होंगे वो लोग जिन्हें भगवान चाहते होंगे। निश्चित तौर पर वे दिन-रात भजन-कीर्तन या जप किया करते होंगे। क्या आप इसमें से देखकर बता सकते हैं कि इसमें मेरे राज्य का कोई नागरिक है या नहीं।’ देव ने हाँ में गर्दन हिलाते हुए जैसे ही उस छोटे से बही खाते को खोल कर देखा तो चौंक गया क्योंकि उसमें पहला ही नाम राजा का लिखा था। उसने तुरंत यह बात राजा को बताई, जिसे सुन राजा आश्चर्यचकित रह गए। उन्होंने तत्काल देव से पूछा, ‘देव महाराज क्या आप मुझे बता सकते हैं कि इस छोटी किताब में मेरा नाम कैसे लिखा हुआ है? मैं तो भूले-बिसरे, साल में एक या दो बार भगवान के मंदिर जा पता हूँ। क्या आप मुझे बता सकते हैं कि इतना कम याद करने के बाद भी मैं भगवान का प्रिय कैसे बन गया?’
देव बोले, ‘राजन इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। जो लोग निःस्वार्थ और निष्काम भाव के साथ लोगों की सेवा करते हैं; संसार के उपकार में अपना जीवन अर्पण करते हैं और जो लोग मुक्ति का लोभ त्यागकर प्रभु की निर्बल संतानों की सेवा-सहायता में अपना योगदान देते हैं, उन त्यागी महापुरुषों का भजन स्वयं ईश्वर करता है। राजन! पूजा-पाठ नहीं कर पाने के लिए पछता मत क्योंकि प्रजा या प्राणियों की सेवा कर, तू असल में भगवान की ही पूजा करता है।’
बात तो दोस्तों देव महाराज की सोलह आने सही है। शायद इसीलिए परोपकार और निःस्वार्थ लोकसेवा को किसी भी उपासना से बढ़कर माना गया है। वैसे भी भगवान कोई साधारण इंसान तो है नहीं जो खुशामद करने से मान जाए या खुश हो जाए। वह तो परोपकार को ही सच्ची भक्ति मानते हैं। इसीलिए हमारे बुजुर्ग कहा करते थे, ‘परोपकाराय पुण्याय भवति’ अर्थात् दूसरों के लिए जीना; दूसरों की सेवा को ही पूजा समझकर कर्म करना; परोपकार के लिए अपने जीवन को सार्थक बनाना ही सबसे बड़ा पुण्य है।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
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